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पर कष्ट आ भी पड़े तो भी जो धर्मानुबंधी कार्य हों वे ही करने चाहिये, कि जो दोनों लोक में सफल हों। किसी महापुण्य के योग से यह मनुष्य जन्म प्राप्त होता है, और उसके प्राप्त होने का फल स्वर्ग तथा मोक्ष का प्रदाता धर्म ही है। सर्व जीवों की अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य, अपरिग्रहता- यह धर्म तुम लोगों को भी मानना योग्य है। हे भद्रों! तुम स्वामिभक्त हों, मैं राजा के सदृश तुम्हारा स्वामी हूँ। इसलिए मेरा कहना मान कर मेरे अंगीकृत मार्ग सद्बुद्धि द्वारा तुम भी ग्रहण करो।' वे बोले कि 'आप पहले भी हमारे स्वामी थे और अब तो गुरु भी हो। आप द्वारा कथित धर्म हमें रूचा है। अतः दीक्षा देकर हम पर अनुग्रह करो।' आर्द्रकुमार ने उनको दीक्षा देकर साथ में लेकर श्री वीरप्रभु को वंदन करने राजगृह की ओर चल दिये। मार्ग में गोशाला सामने मिला। पुण्यरहित गोशाला आर्द्रकमुनि के साथ वाद करने लगा। उस कौतुक को देखने के लिए हजारों मनुष्य और खेचर वहाँ तटस्थ रूप से एकत्रित हो गए। गोशाला बोला-- 'अरे मुनि! यह तपस्या करना वृथा कष्ट रूप है, कारण कि शुभ अशुभ फल का कारण तो नियति (भक्तिव्यता) ही है। आर्द्रक मुनि बोले कि- “अरे गोशाला! जो इस प्रकार ही हो तो इस जगत में सुख ही नहीं है ऐसा कहते हैं। और यदि सुख है ऐसा कहते हो तो पुरुषार्थ को उसके कारण रूप मान्य कर ले। यदि सर्वस्थलों पर नियति ही कारण हो, तो इष्ट सिद्धि के लिए तेरी भी सर्व क्रियाएँ वृथा होंगी। और जो तू नियति पर ही निष्ठा रखकर रहता हो तो स्थान पर क्यों नहीं बैठा रहता ? भोजन के अवसर पर भोजन के लिए किसलिए प्रयत्न करता है ? इससे नियति की तरह स्वार्थसिद्धि के लिए पुरुषार्थ करना भी योग्य है, कारण कि अर्थ सिद्धि में नियति से भी पुरुषार्थ विशेष है। जैसे कि आकाश में से भी जल गिरता है
और भूमि खोदने से भी मिल सकता है इससे नियति बलवान है परंतु इससे भी उद्यम बलवान है" इस प्रकार उन महामुनि ने गोशाला को निरुत्तर कर दिया। यह सुनकर खेचर आदि ने जय जय शब्द करके उसकी स्तुति की।
(गा. 311 से 328) पश्चात् आर्द्रकमुनि हस्तितापसों के आश्रम में गये। वहाँ पर्णकुटियों में हाथियों का मांस घूप में सूखने हेतु रखा हुआ, उनको दृष्टिगत हुआ। वहाँ रहने वाले तापस एक विशाल हाथी को मारकर उसका मांस खाकर बहुत से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)