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सेठ बोले कि, “हे पुत्री! अब जो कोई भी मुनि इस शहर में आवेंगे। उन सब मुनियों को तुझे स्वयमेव भिक्षा देनी है।" पिता की आज्ञा होते ही श्रीमती प्रत्येक मुनि को भिक्षा देती और उनको वंदना करते समय उनके चरण के चिह्नो को देखती थी। इस प्रकार करते करते बारहवें वर्ष में दिग्मूढ़ हुए आर्द्रक मुनि वहाँ आ चढे। श्रीमती ने वंदना करते समय चिह्न को देखकर तुरंत पहचान लिया, तब वह बोली कि, “हे नाथ! उस देवालय में मैंने आपका वरण किया था। इसलिए आप ही मेरे पति हो। उस समय तो मैं मुग्धा थी, अतः मुझे पसीने के बिंदु की तरह त्याग करके आप चले गये थे। परंतु आज आप पकड़ में आ गये हैं, कर्जदार की तरह अब यहाँ से कैसे जा सकते हो? हे नाथ! जब से आप दृष्टि से ओझल हुए थे, तब से प्राणरहित की तरह मेरा सर्व काल निर्गमन हुआ है। इसलिए अब प्रसन्न होकर मुझे अंगीकार करो। इस उपरांत भी यदि क्रूरता से मेरी अवज्ञा करोगे, तो मैं अग्नि स्नान करके आपको स्त्री हत्या का पाप दूंगी।'
(गा. 285 से 291) पश्चात् राजा ने और महाजन ने आकर विवाह के लिए उनको प्रार्थना की। तब मुनि को व्रत लेते समय जो उसके निषेधरूप दिव्य वाणी हुई थी, वह याद आई एवं उस देववाणी को स्मरण करके, साथ ही उनका विशेष आग्रह देखकर महात्मा आर्द्रक मुनि उस श्रीमती को परणे। ‘कभी भी भावी अन्यथा नहीं होता।"
(गा. 292 से 293) श्रीमती के साथ चिरकाल तक भोगों को भोगते हुए उन मुनि के गृहस्थपन की प्रसिद्धि रूप एक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त करता हुआ वह पुत्र राजशुक की तरह तुरंत छूटी जिह्वा से तुतला तुतला कर बोलने लगा। पुत्र बड़ा होने पर आर्द्रककुमार ने श्रीमती को कहा कि 'अब यह पुत्र तेरी सहायता करेगा, इसलिए मैं दीक्षा लूंगा। बुद्धिमान श्रीमती यह बात पुत्र को जताने हेतु रुई की पुणियों के साथ चरखा तकली लेकर कांतने बैठ गई। जब रुई कांतने लगी तब पुत्र ने यह सब देखकर पूछा, “हे माता! साधारण मनुष्य के योग्य ऐसा कार्य आप क्यों कर रही हो? वह बोली कि- 'हे वत्स! तेरे पिता तो दीक्षा लेने जाने वाले हैं। तब उनके जाने के पश्चात् पति रहित मुझे
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)