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वहाँ तो रहने की आस्था ही क्यों हो? फिर उस नगर के राजा उस रत्नवृष्टि को लेने वहाँ आए? कारण कि मालिक बिना के धन पर राजा का ही हक होता है। ऐसा निश्चय ही होता है। राजपुरुष राजा की आज्ञा से जब वह द्रव्य लेने देवालय में घुसे, उसी समय नागलोक के द्वार की तरह वह स्थान अनेक सर्पो से व्याप्त दिखाई दिया। उस समय देवता ने तत्काल ही आकाश में रहकर कहा कि “मैंने यह द्रव्य कन्या के वर के निमित्त से दिया हुआ है, इसलिए अन्य किसी को भी लेना नहीं हैं। यह सुनकर राजा खिन्न होकर लौट गया। तब श्रीमती के पिता ने वह द्रव्य लेकर अलग ही रख दिया। सायंकाल में पक्षियों की भांति सभी अपने अपने स्थान पर गये।
(गा. 26 3 से 275) __ जब श्रीमती विवाह के योग्य हुई, तब अनेक युवा उसका वरण करने को तैयार हुए। तब उसके पिता ने उसे कहा कि, 'इन में से योग्य लगे उसे अंगीकार कर ले।' यह सुनकर श्रीमती बोली कि, – “पिताजी! मैंने उस समय जिस मुनि का वरण किया था, वे ही मेरे वर हैं और देवता ने उनको वरण करने के लिए ही वह द्रव्य दिया है। उन महर्षि का मैं मन से वरण कर चुकी हूँ। एवं आप भी वह द्रव्य लेकर उससे सम्मत हुए हो, इसलिए उन मुनिवर को कल्पित करके अब मुझे अन्य को देना, वह योग्य नहीं है। तात! क्या आपने नहीं सुना यह तो बालक भी जानते हैं कि, “राजा एक बार बोलते हैं, मुनि भी एक बार ही कहते हैं और कन्या भी एक बार ही दी जाती है, ये तीनों बातें एक बार ही होती है। शेठ ने कहा- 'हे पुत्री! वे मुनि किस प्रकार मिल सकते हैं ? क्योंकि वे एक स्थान पर तो रहते नहीं है। पुष्प में भ्रमर की तरह वे नए नए स्थान पर भ्रमण करते रहते हैं। वे मुनि पुनः यहाँ आयेंगे या नहीं? यदि आ भी गए तो किस प्रकार पहचाने जायेगे? उनका नाम क्या ? उनका अभिज्ञान क्या? ऐसे भिक्षुक तो कितने ही आते रहते हैं।" श्रीमती बोली कि 'पिताजी! उस देवालय में देवता की गर्जना से मैं भयभीत हो गई थी, तब मैं वानरी के समान उनके चरणों को पकड़ कर रही थी, उस समय उनके चरणों में एक चिह्न मुझे दिखाई दिया। इसलिए हे पिताजी! आप ऐसी व्यवस्था करो कि जिससे प्रतिदिन मैं जाते आते साधुओं को देख सकूँ।'
(गा. 276 से 284)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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