________________
मगधदेश के राजा हैं, उनके और अपने कुल की परंपरा से प्रीति चली आ रही है।' यह सुनकर आर्द्रक कुमार ने अमृत तरंगिणी जैसी दृष्टि से प्रेमांकुर को प्रगट करता हुआ मंत्री के प्रति बोला, कि आपके स्वामी के कोई पूर्ण गुण वाला पुत्र है ? उसको मैं प्रीतिपात्र करके मित्र बनाना चाहता हूँ। ‘मंत्री बोले कि “हे कुमार! बुद्धि का धाम, पांच सौ मंत्रियों का स्वामी, दातार असामान्य, करुणारस का सागर दक्ष, कृतज्ञ एवं कलारूपी सागर में पारंगत अभयकुमार नामक एक श्रेणिक राजा के पुत्र हैं। अरे कुमार! बुद्धि और पराक्रम में संपन्न धर्मज्ञ, भयरहित और विश्व में विख्यात इस अभयकुमार को क्या तुम नहीं जानते? स्वयंभूरमण नामके समुद्र में अनेक आकारवाले मत्स्य समूह की भांति उस कुमार में वास करके रहे न हों, ऐसे कोई भी गुण इस जगत् में नहीं हैं।" अपने पुत्र को अभयकुमार के साथ मैत्री करने का अर्थी हुआ जानकर राजा ने कहा कि,- 'हे वत्स! तू वास्तव में कुलीन पुत्र है, क्योंकि मेरे चले हुए मार्ग पर तू चलना चाह रहा है और फिर समान गुणवाले और समान कुल तथा संपत्तिवाले तुम दोनों को विवाह सम्बन्ध के तुल्य परस्पर मित्रत्व होना ठीक है। अपने मनोरथ को मिलती पिता की आज्ञा मिलने से आर्द्रककुमार ने मंत्री को कहा कि, आपको मुझे कहे बिना जाना नहीं है क्योंकि यहाँ से जाते समय अभयकुमार के साथ स्नेह रूप वृक्ष के बीज जैसा मेरे वचन तुमको सुनने हैं। कुमार के वचनों से मंत्री ने वैसा ही करना स्वीकारा। तब राजा की इजाजत लेकर छड़ीदार के बताये हुए मार्ग पर मंत्री उनके रुकने के स्थान पर ले गया।
__ (गा. 180 से 198) किसी समय आर्द्रक राजा ने मोती आदि की भेंट लेकर एक अपने पुरुष के साथ उस मंत्री को विदाई दी। उस समय आर्द्रक कुमार ने अभयकुमार के लिए उस मंत्री के हाथ में मूंगा और मुक्ताफल आदि दिये। पश्चात् मंत्री आर्द्रक राजा के आदमी सहित राजगृहपुर में आया और उन्होंने श्रेणिक राजा को
और अभयकुमार को संदेशा कहा कि 'आर्द्रकुमार आपके साथ मित्रता एवं सौभ्रात करना चाहता है। जिनशासन में कुशल अभयकुमार ने चिंतन किया कि, अवश्य ही श्रमणत्व की विराधना करने से वह अनार्य देश में उत्पन्न हुआ होगा। परंतु वह महात्मा आर्द्रकुमार आसन्नभव्य होना चाहिये। कारण कि अभव्य और दूरभव्य को मेरे साथ प्रीति करने की इच्छा ही नहीं होगी। प्रायः समान
166
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)