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एक बार राजा रानियों के साथ पासे खेल रहा था, उसमें ऐसी शर्त रखी कि 'जो जीते वह हारे हुए की पीठ पर चढ़े।' इस प्रकार शर्त रखने पर भी अन्य कुलवान् रानियाँ जब राजा को जीत लेती तो वह अपनी जीत बताने के लिए मात्र राजा के पृष्टभाग पर अपना वस्त्र डाल देती । जब इस वेश्यापुत्री ने राजा को जीता, तब वह हृदय को कठोर करके निःशंक रूप से उनके पृष्ठभाग पर चढ़ गई। राजा को उस समय प्रभु के वचन स्मरण हो आने से अचानक हंसी आ गई। तब उस रानी ने नीचे उतरकर आदर से राजा को हास्य का कारण पूछा। तब राजा ने जिस प्रकार प्रभु ने फरमाया था, उसी प्रकार उसके पूर्व भव से लेकर पृष्ठ ऊपर चढ़ने तक का सर्व वृत्तांत कह सुनाया । यह सुनकर उसे तत्काल ही वैराग्य हो गया और उसने आदरपूर्वक पति की आज्ञा लेकर प्रभु के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की।
(गा. 171 से 176) समुद्र के मध्य में पातालभुवन जैसा आर्द्रक नाम का एक देश है। उसमें आर्द्रक नामक मुख्य नगर है। उस नगर में चंद्र के समान दृष्टियों को आनंददायक और लक्ष्मी से विराजमान आर्द्रक नाम का राजा था। उसके आद्रिका नाम की रानी थी। उन दोनों के आर्द्र मन वाला आर्द्रक कुमार नाम का पुत्र हुआ । वह युवावय को प्राप्त करके यथारुचि सांसारिक भोग भोगने लगा ।
(गा. 177 से 179)
आर्द्रक राजा के और श्रेणिकराजा के परंपरा से बेडी के समान प्रीति बंधी हुई थी। एक बार श्रेणिक ने स्नेहरूप लता के दोहदस्वरूप अनेक भेंट लेकर अपने मंत्री को आर्द्रक राजा के पास भेजा। मंत्री वहाँ पहुँचा, तब आर्द्रक राजा ने मानो श्रेणिक का मूर्तिमन्त मित्रत्त्व हो वैसे गौरवता से उसे देखा । पश्चात् मंत्री के साथ आई हुई सौवर्य, निंबपत्र और कांबल आदि भेंट आर्द्रक राजा ने ग्रहण की। आर्द्रक राजा ने खूब सत्कार से उसकी संभावना करके पूछा कि, “मेरे बंधु श्रेणिक कुशल हैं ?” उसने प्रत्युत्तर में चन्द्र के आतपरूप अपने स्वामी का कुशल वृत्तांत कहकर उस चंद्ररूप मंत्री ने आर्द्रक राजा के मन रूपी कुमुद को पूर्ण आनन्द दिया। तब आर्द्रक कुमार ने पूछा कि, 'हे पिता जी! वे मगधेश्वर कौन है ? कि जिनके साथ वसंतऋतु में कामदेव के समान आपकी प्रीति है। आर्द्रक राजा बोले कि, 'हे वत्स ! श्रेणिक नाम के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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