________________
अनुक्रम से उसे आभीरिणी ने अपने उदरजात की भांति उसका पालन पोषण किया, फलस्वरूप वह रूपलावण्य से शोभित युवती हो गई।
__(गा. 1 5 3 से 154) किसी समय कौमुदी उत्सव आया, जो कि शृंगार रस का सर्वस्व नाटक के मुख जैसा था। उस उत्सव को देखने के लिए युवापुरुषों के लोचनरूप, मृगला को पाशलारूप वह युवती अपनी माता के साथ वहाँ आई। राजा श्रेणिक और अभयकुमार भी परणने जा रहे वर की भांति सर्व अंग पर श्वेतवस्त्र धारण करके उस उत्सव में आये। उस बड़े उत्सव के संमर्द में श्रेणिक राजा का हाथ उस आभीरकुमारी के ऊंचे स्तन वाली छाती पर पड़ गया। इससे उस पर राग उत्पन्न होने से राजा ने उसके वस्त्र के पल्ले पर संभोग की जमानतरूपी अपनी मुद्रिका बांध दी। पश्चात् श्रेणिक ने अभयकुमार को कहा कि मेरा चित्त व्यग्र हो जाने से मेरी मुद्रिका का किसी ने हरण कर लिया। इसलिए उसके चोर को शीघ्र ही शोध ला। यह सुनकर के बुद्धिमान् अभयकुमार सब रंगद्वार बंध करके सोगठा के द्यूतकार की तरह एक एक मनुष्य को बाहर निकालने लगा। बुद्धि के भंडार अभय ने सर्व के वस्त्र, केशपाश और मुख आदि की तलाशी ली। ऐसा करते करते वह आभीरकुमारी भी आई। उसकी तलाशी लेते समय उसके पल्ले पर बंधी राजा की नामांकित मुद्रिका दिखाई दी। अभयकुमार ने उसे पूछा कि हे बाले! यह मुद्रिका तूने किसलिए ली ? वह कान पर हाथ रखकर बोली कि, 'मैं कुछ भी नहीं जानती।' उसे अतिरूपवती देखकर धीमान् अभयकुमार ने विचार किया कि 'अवश्य ही इस आभीरकुमारी पर पिताजी अनुरक्त हुए होंगे और उसे ग्रहण करने के लिए रागवश हुए राजा ने निशानी रूप में अपनी मुद्रिका उसके वस्त्र पर बांध दी लगती हैं। ऐसा चिंतन करता हुआ वह अभयकुमार उसे राजा के पास ले गया। राजा ने पूछा कि, 'क्या मुद्रिका का चोर मिला?' अभय बोला कि- 'देव! उसे चुरानेवाली यह बाला है, परंतु हे प्रभु! उसने मुद्रिका के साथ आपका चित्त भी चोर लिया हो, ऐसा लगता है।' राजा हंसकर बोला- 'इस कुमारिका से मैं विवाह करूँगा। क्या तुमने सुना नहीं है कि दुष्कुल में से भी स्त्रीरत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए। तब राजा ने निर्दोष अंगवाली उस आभीरकन्या से विवाह किया और अत्यन्त राग से उसे पट्टरानी बनाई।
(गा. 155 से 170)
164
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)