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पुण्य पापवाले प्राणियों को ही प्रीति होती है, उनका स्वभाव एक समान होता है और मैत्री भी एक समान स्वभाव में ही उत्पन्न होती है ।' अब कोई भी उपाय करके उसे पुनः जैन धर्मी करके उसका आप्तजन बनूं। क्योंकि जो जैनधर्ममार्ग में अग्रसर हो, वही आप्त कहलाता है। उस आर्द्रकुमार को मैं तीर्थंकर प्रभु का बिंब दर्शन कराऊँ ।' कि जिससे उसे उत्तम जाति स्मरण हो । यहाँ से भेंट स्वरूप महान् आचार्य द्वारा प्रतिष्ठित एक रत्नमयी उत्तम अर्हन्त प्रतिमा उसे भेजूं | इस प्रकार विचार करके उसने एक मंजूषा में श्री आदिनाथ जी प्रभु की अप्रतिम प्रतिमा स्थापित की। वह प्रतिमा कल्याण करने में कामधेनु तुल्य थी। पश्चात् उस प्रतिमा के समक्ष घूप दानी, घंट आदि देवपूजा के समग्र उपकरण रखे। फिर उस मंजूषा पर ताला लगाकर अभयकुमार ने उस पर अपनी मोहर - छाप (सील) लगा दी । मगधपति श्रेणिक ने उस आर्द्रक राजा के अनुचर को बहुत सी भेंट देकर प्रिय आलापपूर्वक विदा किया। उस समय अभयकुमार ने भी वह मंजूषा दी और अमृततुल्य वाणी से उसका सत्कार करके कहा कि, “हे भद्र! यह पेटी अर्द्रकुमार को देना और उस मेरे बंधु को मेरा यह संदेश कहना कि, यह पेटी एकांत में जाकर तुझे अकेले को ही खोलनी है और उसमें जो वस्तु है वह अन्य किसी को बताना नहीं" इस प्रकार उनका कथन स्वीकार करके वह पुरुष अपने नगर में गया और साथ लाई भेंट अपने स्वामी को एवं कुमार को दी। साथ ही अभयकुमार का संदेश आर्द्रकुमार को एकांत में ले जाकर कहा । आर्द्र कुमार ने एकांत में वह पेटी खोली, तो उसमें अंधकार में भी उद्योत करती मानो तेज की ही घड़ी हुई हो वैसी श्री आदिनाथ प्रभु की मनोहर प्रतिमा उसे दिखाई दी । उसे देखकर आर्द्रककुमार विचाराधीन हो गया। कि 'यह क्या है ? यह किसी अंग का उत्तम आभूषण दृष्टिगत होता है। यह क्या मस्तक पर या कंठपर या हृदय में पहनने का होगा ? परंतु पूर्व में किसी स्थान पर ऐसी वस्तु देखी अवश्य है । पर मंदाभ्यासी को शास्त्र की भांति यह मेरे स्मृति पथ में नहीं रही हैं' इस प्रकार गहन चिंतन करते करते आर्द्रकुमार को जाति स्मरण ज्ञान को उत्पन्न करने वाली तीव्र मूर्च्छा आ गई । जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होते ही चेतना को प्राप्त करने पर वह अपने पूर्वभव की कथा का चिंतन करने लगा “अरे! इस भव से तीसरे भव में मगधदेश के बसंतपुर नगर में सामानिक नामक मैं एक कुटुम्बी (कणवी ) था । मेरे बंधुमती नामकी स्त्री थी। उसके साथ किसी समय सुस्थित नाम के आचार्य के पास से अर्हत्
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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