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सुनकर 'अहो! यह बाला कैसी शुद्ध हृदय वाली और प्रतिज्ञा पालन करने वाली है।' ऐसे विस्मय से उसके पति ने उसे जाने की आज्ञा दी। तो वह सद्य वासगृह में से बाहर निकली।
(गा. 81 से 92) विचित्र रत्नाभरणों को धारण करके वह सत्यवचनी बाला मार्ग में जा रही थी। इतने में कुछ धन के इच्छुक पापी चोरों ने उसे रोका। उनके पास भी उसने उस माली की कथा कह सुनाई। और बोली कि- हे भाईयों! मैं जब वापिस आऊं, तब तुम खशी से मेरे आभूषण ले लेना। उसको स्वभाव से सत्य प्रतिज्ञावाली जानकर 'अपन उसे वापिस आते समय लूंट लेंगे।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने उसे छोड़ दी। आगे जाने पर क्षुधा से कृश उदरवाले एवं मनुष्य रूप मृग का बैरी ऐसे एक राक्षस ने उस मृगाक्षी को रोका। उसने भी उसे वापिस आते समय उसका भक्षण करने की मांग की। उसका सत्य स्वभाव जानकर वह विस्मित हुआ और वापिस लौटते समय उसका भक्षण करूंगा इस आशा से उसे छोड़ दिया। पश्चात् वह युवती उस उद्यान में आई और उद्यानपालक को जगाकर कहा कि 'मैं वह पुष्प को चोरनेवाली कन्या हूँ, जो कि नवोढा होकर मेरे वचनानुसार तुम्हारे पास आई हूँ।' यह सुनकर 'अहो! यह वास्तव में सत्य प्रतिज्ञावाली महासती है।' ऐसा जानकर उसने माता के समान नमन करके माली ने उसे इजाजत दे दी। वहाँ से वह घूमती हुई जहाँ वह राक्षस था, वहाँ वह आई और माली के साथ जो बनाव बना वह यथार्थ रूप से राक्षस को कह सुनाया। यह सुनकर क्या मैं माली से भी हीन हूँ? ऐसा विचार करके उसे स्वामिनी की तरह प्रणाम करके छोड दिया। तब वह उन चोरों के पास आकर बोली कि, हे भाईयों! तुम मेरा सर्वस्व लूट लो, ये मैं हाजिर हो गई हूँ। तब जैसे माली और राक्षस ने उसे छोड़ दिया, वह सब वृत्तांत कह सुनाया। तब वे बोले कि हम भी कोई माली, और राक्षस से हीन नहीं है, इसलिए हे भद्रे! तू चली जा, तू तो हमारी वंदन करने योग्य बहन है। इस प्रकार सबने जब छोड़ दिया, तब वह निर्विघ्न होकर घर आई। उस उत्तम बाला ने चोर, राक्षस और माली की कथा अपने पति के समक्ष यथार्थ रूप से कह सुनाई। यह सुनकर हर्षित हुए पति ने उसके साथ सम्पूर्ण रात्रि भोगसुख व्यतिक्रम करके और प्रातः काल उसे अपने सर्वस्व की स्वामिनी करी।"
(गा. 93 से 109)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)