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परीषह को सहन करते उन मुनि को उन्होंने शीघ्र ही वाहन से नीचे उतरकर वंदन किया। पश्चात् धर्म संबंधी चर्चा करके श्रेणिकराजा पनि सहित उन मुनि को भक्तिपूर्वक वंदन करके अपने महल में आये।
(गा. 6 से 14) सायंकाल के योग्य सर्व क्रियाएं सम्पन्न करके राजा अगरु कर्पूर के घूप से अंधकारित ऐसे वासगृह में गया। चेल्लणा देवी ने जिसकी भुजलता का तकिया किया है, ऐसा वह उसकी छाती पर हाथ रखकर सो गया। चेल्लना उरोजो को नीचे करके गाढ आलिंगन से रानी को भी निद्रा आ गई। गाढ़ निद्रा आने से
चेल्लणा का करपल्लव आच्छादन (रजाई) आदि में से बाहर निकल गया। ‘अक्सर निद्रा आलिंगन को छुड़ा देती है।' बिच्छू के कांटे की तरह दुःसह शीत का उसके कर को स्पर्श हुआ। उसकी वेदना से चेल्लणा तुरंत ही जागृत हो गई। ठंड की पीड़ा से सीत्कार करती हुई उसने राजा के हृदय में मन की तरह अपने हाथ को आच्छादन के अंदर स्थापित किया। उस समय उत्तरीय वस्त्र रहित उन प्रतिमाधारी मुनि का उसको स्मरण हुआ। इससे वह बोल उठी कि 'अहो! ऐसी ठंडी में उनका क्या हुआ होगा?' ऐसा बोलने के पश्चात् पुनः इस सरल हृदया चेल्लणा को निद्रा आ गई। महान् हृदयवाले मनुष्यों को प्रायः निद्रा दासी की तरह वश्य होती है।" चेल्लणा के सीत्कार से अल्पनिद्रा वाला राजा जाग गया था। वह उसके पूर्वोक्त वचन सुनकर चित्त में विचार करने लगा कि, अवश्य ही इसके मन में कोई अन्य पुरुष रमण करने की इच्छा कर रहा है, कि जिसके लिए ऐसी कड़कडाती शीत की पीड़ा की संभावना से अभी यह सोच रही है। “ऐसे विचार से ईर्ष्या से व्याकुल हुए श्रेणिक राजा ने शेष सर्व रात्रि जागृत रहकर व्यतीत की।" "स्त्री पर प्रीति रखने वाला कोई भी सचेतन पुरुष कभी ईर्ष्या बिना नहीं होता।"
(गा. 15 से 25) प्रातःकाल में चेल्लणा को अंतःपुर में जाने की आज्ञा करके प्रचंड शासन वाले श्रेणिक ने अभयकुमार को बुलाकर इस प्रकार कहा कि “हे वत्स! मेरे अंतःपुर को जला डाल। इसमें तू जरा भी माता का मोह रखना नहीं।" इस प्रकार अभय को आज्ञा देकर अद्भुत लक्ष्मी द्वारा विराजमान श्रेणिक राजा अर्हन्त श्री वीरप्रभु को वंदन करने के लिए गये। अभयकुमार पिता की आज्ञा
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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