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से भयभीत हो गया। परंतु वह स्वभाव से विचारपूर्वक कार्य करने वाला था। इससे वह धीमान् अपने मन में विचार करने लगा कि 'मेरी सर्व माताएँ स्वभाव से ही महासतियाँ है। और मैं तो उनका रक्षक हूँ। फिर भी पिता की आज्ञा
आ गई तो पिता को संभवित लगा, वह मैं असंभवित कैसे कर दूं? फिर पिता का कोप नदी के कोप जैसा असह्य है। तथापि कुछ भी विचित्र बहाना निकालकर कालक्षेप करने से राजा कोप निवृत्त होना संभव है। ऐसा विचार करके चतुर अभयकुमार ने अंतःपुर के पास स्थित हाथी खाने की जीर्ण कुटियों को जला दी और 'अंतःपुर' दग्ध किया' ऐसी आघोषणा सर्वत्र प्रवृत्त की।
(गा. 26 से 33) इधर श्रेणिक राजा ने श्री वीरप्रभु को अवसर देखकर पूछा कि, “हे प्रभु! चेल्लणा एक पतिवाली है, या अनेक पतिवाली है। प्रभु ने फरमाया- हे राजन्। तेरी धर्मपत्नि चेल्लणा महासती है एवं शील अलंकार से शोभित है। इसलिए इस स्त्री पर किसी भी प्रकार की शंका लाना नहीं।' इस प्रकार प्रभु के वचन सुनकर पश्चात्ताप करते हुए श्रेणिक राजा तत्काल प्रभु को नमस्कार करके अपने नगर की तरफ दौड़े। इधर अग्नि जलाकर अभयकुमार उनके सामने आ रहा था। उसे राजा ने पूछा कि क्या तूने मेरी आज्ञानुसार कर दिया ? तब अभय ने निर्भय होकर अंजलीबद्ध करके कहा- “हे स्वामी! आपकी आज्ञा अन्य को भी प्रमाणभूत है, तो क्यों न हो? राजा बोले- अरे पापी! अपनी माताओं को जला कर तू यद्यपि कैसे जी रहा है? तू अग्नि में क्यों नहीं गिरा?" अभय कुमार बोला, “तात! अर्हन्त के वचनों को श्रवण करने वाला मुझे पतंग की भांति मरना योग्य नहीं। मैं तो समय आने पर व्रत ग्रहण करूँगा एवं उस समय वीरप्रभु की आज्ञा ऐसी होगी तो मैं पतंग की तरह मृत्यु भी प्राप्त कर लूंगा, इसमें जरा भी संशय रखना नहीं। राजा के कहा कि, “अरे! मेरे वचन से भी तूने ऐसा अकार्य कैसे किया? ऐसा कहकर मानो विषपान किया हो वैसे राजा मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। अभयकुमार शीतल जल से राजा का सिंचन करने लगा। जब श्रेणिकराजा स्वस्थ हुए तब अभय ने कहा कि, 'हे प्रभु! अंतःपुर में तो कुशलता है, किसी दुर्भाग्य के योग से आपने मेरी माताओं पर अवकृपा करके उनका निग्रह करने की मुझे आज्ञा दी, परंतु मैंने वैसा नहीं किया। यह मेरा अपराध हुआ है। पिताजी! उसके
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)