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सप्तम सर्ग चेल्लणा के योग्य एक स्तंभ प्रासाद का निर्माण, आम्रफल का हरण, श्रेणिक का किया विद्याग्रहण,
दुर्गन्धा और आर्द्रकुमार कथा
चेल्लणा के साथ जलक्रीडादिक से रमत गमत करते श्रेणिक मानो प्रेमसूत्र से उसका मन पिरोया हुआ हो ऐसा दिखाई देता था। वह स्वयं के कर के कांसकी (कंघी) करके प्रतिदिन एकांत में चेल्लणादेवी के केशपाश को संवारता रहता था। अपने हाथ से गुंथी हुई सुंदर पुष्पमालाओं से बालबंधक सेवक की तरह वह उसके केशपाश को बांधता था। स्वयं द्वारा घिसे कस्तूरी द्रव्य से उसके गाल पर चित्रकार की तरह विचित्र पत्रवल्ली आलेखित करता था और हमेशा आसन पर बैठते, शयन करते, भोजन करते या अन्य कोई भी कार्य करते एक नाजर की तरह उसका पार्श्व छोड़ता ही नहीं था।
__(गा. 1 से 5) अन्यदा (दीन दुःखी को) भयंकर शिशिर ऋतु आई। हिम के भार को वहन करनेवाला वनदाहक उत्तरदिशा का पवन चलने लगा। श्रीमंत लोग सिगड़ी पास में रखकर और केशर का विलेपन करके गर्भगृह में रहकर काल निर्गमन करने लगे। उस समय निर्धन लोगों के बालक वस्त्र रहित होकर हाथी दांत जैसे खुले हाथ करके कांपते हुए गृहद्वार पर दंतवीणा बजा रहे थे। युवा पुरुष लोग रात्रि में स्वभाव से उष्ण ऐसे प्रिया के उरोजो से अपने करकमल को दूर नहीं करते थे, उस समय वे कर तुंबिका पर रहे हुए वीणादंड जैसा दिखाई देता था। ऐसे समय में सर्व अतिशय में सम्पूर्ण और सुर असुरों से सेवित ज्ञातनंदन श्री वीरप्रभु वहाँ समवसरे। यह समाचार सुनकर श्रेणिक राजा अपराह्न काल में (दोपहर)में चेल्लणा देवी के साथ वंदन करने के लिए आये। श्री वीरअर्हन्त को वंदन करके वे वापिस लौटने लगे। मार्ग में उन्होंने किसी जलाशय के पास एक प्रतिमाधारी मुनि को देखा। उत्तरीय वस्त्र से रहित शीत
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)