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कर्म को भोगे बिना उसे टालने में समर्थ नहीं हो सकते। तो तुम प्रतिदिन वृथा प्रयत्न किसलिए कर रहे हो? इस प्रकार देवता ने उसे बारबार कहा, तो भी वह माना नहीं।
(गा. 407 से 429) किसी समय एकाकी विहार करने वाले नंदीषेण मुनि छट्ठ का पारणा करने के लिए भिक्षा लेने के लिए निकले। अनाभोग के दोष से प्रेरित होकर वे एक वेश्या के घर में घुसे। वहाँ जाकर उन्होंने धर्मलाभ दिया। तब 'मुझे तो केवल अर्थ का लाभ हो, धर्म के लाभ की मुझे कोई जरूरत नहीं है।' इस प्रकार हास्य करती हुई विकार युक्त चित्तवाली वेश्या बोली। उस समय 'यह बिचारी क्यों मुझ पर हँसती है? ऐसा विचार करके मुनि ने एक तृण खींचकर लब्धि द्वारा रत्नों का ढेर कर दिया। तब 'यह ले अर्थ का लाभ' ऐसा कहते हुए उसके घर से मुनि बाहर निकले। वेश्या संभ्रमि सहित उनके पीछे दौड़कर कहने लगी कि, “हे प्राणनाथ! ऐसा दुष्कृत व्रत छोड़ दो और मेरे साथ भोग भोगो, अन्यथा मैं मेरे प्राणों का त्याग कर दूंगी। इस प्रकार बारबार करी हुई विनती से नंदीषेण मुनि व्रत त्यागने के दोषों को जानते हुए भोग्य कर्म के वश होकर उनके कथन को स्वीकार किया। परंतु साथ में ऐसी प्रतिज्ञा की कि 'यदि मैं प्रतिदिन दस अथवा उससे अधिक मनुष्य को प्रतिबोध न करूं तो मुझे पुनः दीक्षा लेनी।'
(गा. 424 से 430) तब मुनिलिंग को छोड़ कर नंदीषेण वेश्या के घर पर रहे और उस देवता की तथा वीरप्रभु की दीक्षा अटकाने वाली वाणी को बार बार याद करने लगे। वहाँ रहकर निरंतर वेश्या के साथ भोगों को भोगने लगे। साथ ही प्रतिदिन दस भव्य जनों को प्रतिबोध करके दीक्षा के लिए प्रभु के पास भेजने लगे। एक समय भोगकर्मफल क्षीण होने से नंदीषेण नव मनुष्यों को तो प्रतिबोधित किया, परंतु दसवां एक सोनी था, जो किसी भी प्रकार प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हुआ। उसे बोध करने में अधिक समय रुकने से वेश्या रसोई बनाकर बारम्बार बुलाने के लिए मनुष्यों को भेजने लगी। परंतु अपना अभिग्रह पूर्ण न होने से भोजन करने के लिए उठे नहीं एवं आदरपूर्वक विविध वाणी की युक्ति उस सोनी को प्रतिबोध देने लगे। अंत में वेश्या स्वयं आई और कहने लगी कि, 'हे स्वामी!
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)