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प्रभु की वाणी से मेघकुमार मुनि व्रत में स्थिर हुए। उन्होंने रात्रि में हुए गलत विचार का मिथ्यादुष्कृत किया एवं विविध तप करना प्रारंभ किया। इस प्रकार सुचारु रूप से व्रत पालकर मुत्यु के पश्चात् वे विजय नामक विमान में देवता हुए। वहाँ से च्यवकर महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
(गा. 406 से 407) एक दिन प्रभु की देशना से प्रतिबोध को प्राप्त कर नंदीषेण ने व्रत लेने की इच्छा से श्रेणिक राजा से अनुमति मांगी। पिता की सम्मति मिल जाने पर वह व्रत लेने की इच्छा से घर से बाहर निकला। वहाँ किसी देवता ने अंतरिक्ष में रहकर कहा कि “वत्स! तू व्रत लेने को उत्सुक क्यों हो रहा है ? अभी तेरे चारित्र को आवरण करने वाले भोगकर्म बाकी है। उस कर्म का क्षय हो जाय वहाँ तक थोड़ा समय गृह में ही वास कर, वे कर्म क्षय हो जाय तब तू दीक्षा लेना। मतलब कि अकाल में की गई क्रिया फलीभूत नहीं होती।" यह सुनकर नंदीषण ने कहा कि 'साधुत्व में निमग्न हुए मुझे चारित्र में आवरण करने वाला कर्म क्या पर सकने वाला है ? इस प्रकार कहकर वह प्रभु के पास आए। प्रभु ने भी उसे रोका, तथापि उसने उतावल करके प्रभु के चरणकमल में दीक्षा ग्रहण कर ली। पश्चात् छट्ट, अट्ठम आदि तपश्चरण करके वे नंदीषेण मुनि प्रभु के साथ गांव, आकर और पुर आदि में विहार करने लगे। वे गुरु के पास बैठकर सूत्र और सूत्र के अर्थ को नित्य विचारने लगे और परीषह सहन कर रहे थे। भोग्यकर्म के उदय से बलात्कार से हुई भोग की इच्छा का निरोध करने के लिए वे तपस्या से अपने शरीर को अधिक कृश कर रहे थे। इंद्रियों के विकारों का पराभव करने के लिए प्रतिदिन स्मशान आदि भूमि में जाकर घोर आतापना लेते थे। जब विकार बलात्कार ही उठते तब व्रतभंग से कायर होकर इंद्रियों का शोषण करने वे स्वयमेव उसे बंद करने में प्रवृत होते थे। व्रत लेते हुए रोकने वाले देवता उसके बंधन को छेद डालता। तब शस्त्र द्वारा मृत्यु प्राप्त करने की कोशिश करते थे। परंतु देवता उनके शस्त्र को कुंठित कर देता था और साथ ही मरने की इच्छा से जहर खाते उस विष के वीर्य को देवता हरण कर लेते
और यदि अग्नि में घुसते तो अग्नि को शीतल कर डालते थे। यदि किसी समय पर्वत के ऊपर से झंपापात करते तो देवता उनको झेल लेते और कहते कि 'हे नंदीषेण! मेरे वचन क्यों नहीं याद करते? अरे दुराग्रही! तीर्थंकर भी भोग्यफल
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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