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टकराते। इससे उनको विचार आया कि “वैभव रहित होने से ये मुनि मुझे पैरों से संघट्ट करते जा रहे हैं। क्योंकि “सर्वत्र वैभव की ही पूजा होती है ।" इसलिए प्रातः प्रभु की आज्ञा लेकर व्रत को छोड़ दूंगा ।" ऐसा विचार करते करते उन्होंनें बड़ी मुश्किल से रात्रि व्यतीत की । प्रातः काल में व्रत छोड़ने की इच्छा से वे प्रभु के पास गये। सर्वज्ञप्रभु केवलज्ञान द्वारा उनके भाव जानकर बोले कि"अरे मेघकुमार! संयम के भार से भग्न चित्त वाला हुआ तू अपने पूर्व भव को क्यों नहीं याद करता ? सुन ! इस भव से तीसरे भव में तू वैताढ्यगिरि पर मेरुप्रभ नामक हाथी था। एक बार वन में दावानल लगने से तृषार्त होकर तू सरोवर में पानी पीने हेतु गया । वहाँ तू दलदल में फंस गया। इससे निर्बल हुआ जान कर तेरे शत्रु हस्ति ने आकर दंतादि के बहुत प्रहार किये। इससे सातवें दिन मृत्यु प्राप्त कर उसी नामका तू विंध्याचल में हाथी हुआ। एक बार जंगल में दावानल लगा देखकर जातिस्मरण ज्ञान होने से तृण वृक्ष आदि का उन्मूलन करके यूथ की रक्षा के लिए तुमने नदी के किनारे तीन स्थंडिल किये। किसी समय पुनः दावानल लगा देखकर तू उन स्थंडिल की तरफ दौड़ा। वहाँ मृग आदि जानवरों ने आ आकर पहले से ही दो स्थंडिल को भर चुके थे। इससे तू तीसरे स्थंडिल में गया। वहाँ रहते हुए तूने शरीर पर खुजली करने के लिए एक पैर ऊँचा किया। इतने में परस्पर 'प्राणियों के संमर्दन से ठसाठस भरे उस स्थंडिल में से एक खरगोश उस पैर की जगह आ कर खड़ा हो गया । पैर वापिस रखते समय उसे दयापूर्ण हृदय वाले तूने जैसे मद से खड़ा रहे वैसे वह पैर ऊंचा रखकर तीन पैरों से खड़ा रहा। ढाई दिन में दावानल शांत हो जाने पर वे खरगोश आदि प्राणी अपने अपने स्थान पर चले गये । क्षुधा और तृषा से पीड़ित तू भी पानी के लिए जैसे ही दौड़ने लगा कि तीन दिन तक तीन पैरों से खड़े होने की वजह से चौथा पैर अकड़ गया और तू पृथ्वी पर गिर पड़ा । क्षुधा और तृषा के दुःख से तीसरे दिन तेरी मृत्यु हो गई । परंतु खरगोश पर की हुई दया के पुण्य से तू राजपुत्र हुआ है और मुश्किल से तुझे मनुष्य भव प्राप्त हुआ है। तो तू उसे व्यर्थ क्यों गंवा रहा है। एक खरगोश की रक्षा केलिए तूने इतना कष्ट सहन किया, तो अब साधुओं के चरण संघट्टन से इतना खेद क्यों कर रहा
? एक जीव को अभयदान देने से तुझे इतना फल प्राप्त हुआ है, उसका अच्छी तरह से पालन कर और इस भवसागर को तिर जा, "क्योंकि उसे पार उतरने में समर्थ मनुष्य जीवन को इस लोक में पुनः प्राप्त करना दुर्लभ है।"
(गा. 389 से 405)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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