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ने जाकर श्रेणिक राजा को कहा कि 'एक हाथी सर्व लक्षणों से युक्त होने से राजा के योग्य है, आप अपने व्यक्ति भेजें तो बता दें ।' तत्काल श्रेणिक राजा व्यक्तियों को साथ ले जाकर उस हाथी को पकड़ कर बांध लिया एवं अपने दरबार में ले आए। “राजा गण सेना के अंग को बढ़ाने में कौतुकी होते हैं" ऐसे असह्य बलवाले हाथी को भी राजा ने बलात्कार बांध लिया । जल से अभेद्य न होने की भांति मनुष्यों को क्या असाध्य है ।" उस सेचनक के पैरों में सांकल डाली नहीं थी, तो भी वह क्रोध से मानो चित्रस्थ हो वैसे सूंढ, पूंछ और कान स्थिर करके रहा था। इतने में 'सद्भाग्य से अपने आश्रमों का कुशल हुआ । ' ऐसा विचार करके प्रसन्न होते हुए वे तापस वहाँ आकर उस बद्ध हाथी का तिरस्कार करने लगे कि - "अरे दुष्ट ! हमने तुझे लालित, पालित करके पोषण करके बड़ा किया, वहीं पर तू उल्टी अग्नि की तरह अपने ही स्थान का घात करने वाला हुआ। अरे दुर्मति ! अरे बल से उन्मत्त ! तूने जो हमारे आश्रमों को तोड़ा उसी कर्म का यह तुझे बंधन रूप फल मिला है। ऐसे तापसों के वचनों का सुनकर हाथी ने सोचा कि " अवश्य ही इन तपस्वियों ने ही कोई उपाय की रचना करके मुझे इस दशा को प्राप्त कराया है ?” उसने तत्काल ही क्रोध से कदली स्तंभ की तरह आलानस्तंभ को तोड़ डाला और कमल के वीस तंतु तरह तड़तडाट बंधन तोड़ डाले, फिर वहाँ से छूट कर क्रोध से नेत्र और मुख को लाल करके भ्रमर की तरह उन तापसों को दूर फेंक दिया और स्वयं अरण्य की तरफ दौड़ा।
(गा. 341 से 354)
श्रेणिक राजा अश्वारूढ हुए पुत्रों को लेकर उस हाथी के पीछे दौड़े एवं मृगया में प्राप्त हुए मृग के समान उसे चारों ओर से घेर लिया। वह मदोन्मत्त गजेन्द्र मानो व्यंतर ग्रस्त हुआ हो, वैसे महावनों के प्रलोभन या तिरस्कार को गिनता ही नहीं था। परंतु नंदीषेण को देख, उसके वचनों को सुनकर वह शांत हो गया। उसी समय अवधिज्ञान से ( जातिस्मरण संभव है ) अपना पूर्व भव जान लिया। नंदीषेण तुरंत ही उसके पास आकर, उसकी कक्षा का आलंबन करके दांत के ऊपर पैर रखकर उस पर आरुढ़ हो गया एवं उसके कुंभस्थल पर तीन बार मुट्ठि से प्रहार किया । नंदीषेण के वचन से दंतघात आदि क्रिया करते हुए वह हाथी मानो शिक्षित हो वैसे बंधस्थान पर आगया । पश्चात् श्रेणिक ने उस हाथी को पट्टा दिया अर्थात् अपना पट्टहस्ति निर्धारित किया एवं युवराज
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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