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की तरह अपना प्रीतिपात्र किया। श्रेणिक राजा की कुलीन पत्नियों से अन्य भी 'काल' आदि बहुत से पराक्रमी पुत्र हुए।
___ (गा. 355 से 361) श्री वीरप्रभु भव्य प्राणियों को प्रतिबोध करने के लिए विहार करते हुए सुर असुरों के परिवार के साथ राजगृही नगरी में आए। वहाँ गुणशील चैत्य में देवताओं द्वारा निर्मित चैत्यवृक्ष से सुशोभित समवसरण में प्रभु ने प्रवेश किया। वीरप्रभु समवसरे ऐसा सुनकर श्रेणिक राजा पुत्र सहित विशाल समृद्धि से वंदन करने आए। प्रभु को प्रदक्षिणा देकर, नमन करके भक्तिमान् श्रेणिक राजा स्तुति करने लगे। “हे त्राता! जगत को जीतने वाले आपके अन्य गुण तो एक तरफ रहें, परंतु मात्र उदात्त शांत ऐसी मुद्रा ने ही इस तीन जगत को जीत लिया है। इससे मेरु तृण समान और समुद्र गड्ढे समान हो गया। सर्व महानों में से महान ऐसे आपको जिन पापियों ने छोड़ दिया है, उनके हाथ में चिंतामणि रत्न पतित हो गया है और जिन अज्ञानियों ने आपके शासन के सर्वस्व को स्वाधीन किया नहीं, उन्होंने अमृत प्राप्त करके भी उसे वृथा कर दिया है। जो आप पर
भी गुच्छाकार (वक्र) दृष्टि धारण करता है, उसे साक्षात् अग्नि की शरण ही प्राप्त होती है। इस विषय में अधिक क्या कहूँ ? जो आपके शासन रूप परिणाम की विकलता ही होती है। जो आपके शासन की अन्य के शासन की तुलना करते हैं, वे हतात्माएं अमृत और विष को समान गिनते हैं। जो आपके शासन से मत्सरता धारण करते हैं, वे गूंगे और बहरे हो जाते हैं। क्योंकि पापकर्म से शुभ परिणाम की विकलता होती है। जो आपके शासनरूप अमृत रस से हमेशा अपनी आत्मा को सिंचन करता है, उनको मेरी प्रणामांजलि है और हम उनकी उपासना करते हैं। जिनके मस्तक पर आपके चरणनख की किरण चिरकाल चूड़ामणि रूप हो जाती है, उस भूमि को भी नमस्कार है। इससे अधिक मैं क्या कहूँ ? मैं धन्य हूँ, सफल जन्मा हूँ और कृतार्थ हुआ हूँ कि जो आपके गुणग्राम की रमणीयता में लम्पट रहा हूँ।
(गा. 362 से 374) इस प्रकार स्तुति करके श्रेणिक राजा के विराम लेने के पश्चात् श्री वीरप्रभु ने अमृतवृष्टि जैसी धर्म देशना दी। प्रभु की देशना सुनकर श्रेणिक राजा ने समकित का आश्रय किया एवं अभयकुमार आदि ने श्रावकधर्म अंगीकार
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)