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हथिनी को देखकर 'यह बिचारी हथिनी शरण की इच्छा रख रही है, 'ऐसा तापसों को ज्ञात हुआ। तब 'हे वत्से! तू विश्वास रखकर स्वस्थ हो जा, इस प्रकार उन्होंने कहा। फिर वह पिता के घर की भांति उनके आश्रम में रही। अनुक्रम से जब उस हथिनी के पुत्र का प्रसव हुआ, तब वह उस पुत्र को तापसों के आश्रम में छोड़ कर स्वयं वापिस पहले के समान ही यूथ में विचरण करने लगी। किसी किसी समय बीच में गुप्त रीति से आ आकर वह अपने बाल कलभ को स्तनपान कराकर चली जाती। वह बाल गजकुमार आश्रम के वक्षों की तरह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। तापस पके हुए नीवार के ग्रास से और शल्लकी के कवल से अपने बालक की तरह उसका प्रेम से पोषण करते थे। वह गजकुमार क्रीड़ा करता हुआ अपने सूंढ से तपस्वियों को उत्संग में पालथी और मस्तक पर जटा मुकुट रचता था। पानी के घड़े भर भर कर आश्रम के वृक्षों का सिंचन करते हुए उन तापसों को देखकर वह कलभ भी अपनी सूंढ में जलभर भर कर वृक्षों का सिंचन करता था। इस प्रकार प्रतिदिन आश्रम के वृक्षों का सिंचन करने से उस कलभ का तापसों ने 'सेचनक' नाम रखा। अनुक्रम से उसकी सूंढ के साथ लगे दांत भी उत्पन्न हुए, नेत्र मधुपिंगल जैसे हुए, सूंढ भूमि का स्पर्श करने लगी। पीठ उन्नत हो गई, कुंभस्थल ऊंचा हो गया, ग्रीवा लघु हो गई, वेणुक (पृष्ठ भाग) क्रम से नम गया, सूंढ से पूंछ किंचित् ही कम रही और वह बीस नखों से शोभने लगा। साथ ही पिछले भाग में नीचे एवं गात्र के भाग में ऊंचा हो गया। इस प्रकार वह हाथी के सर्व लक्षणों से संयुक्त हुआ। अनुक्रम से उसके मुख के ऊपर मद भी झरने लगा।
__(गा. 321 से 340) एक बार वह सेचनक नदी के तीर पर पानी पीने गया। वहां वह यूथपति उसे दिखाई दिया। उसके साथ युद्ध करके उस सेचनक ने उसे मार डाला एवं स्वयं सर्व यूथ का पति हुआ। बाद में उसने विचार किया कि 'जैसे मेरी माता ने मुझे कपट से तापसों के आश्रम में गुप्त रखा और वहाँ वृद्धि प्राप्त करके मेरे पिता को जैसे मैंने मार डाला, वैसे ही आश्रम में कोई दूसरा हस्ति भी वृद्धि प्राप्त करके वैसा कर सकता है। इसलिए ये आश्रम ही नहीं रहने चाहिये। ऐसा विचार करके उसने तट को ही नदी भग्न कर दे वैसे उन सभी आश्रमों को उसका स्थान भी न ज्ञात हो, उस प्रकार तोड़ डाला। पश्चात् 'यह दुरात्मा हस्ति अपने को कोई भी आश्रम में सुख से रहने नहीं देगा, ऐसा सोचकर उन तापसों
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)