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इसी भरतक्षेत्र में विनीता नामकी श्रेष्ठ नगरी थी । जिस नगरी को युगादि प्रभु के लिए देवताओं ने पहले बसाई थी । उसी में श्री ऋषभस्वामी के पुत्र भरत, नव निधि और चौदह रत्नों के अधिपति चक्रवर्ती हुए थे । उन्हींके गृहांगण में इस ग्रामचिंतक नयसार का जीव पुत्ररूप से अवतरित हुआ । उसके आसपास मरीचि (किरणों) का प्रकाश पुंज फैल रहा था, अतः उस पुत्र का नाम मरीचि रखा। एक बार श्री ऋषभदेव प्रभु के प्रथम समवसरण में पिता और भ्राता के साथ वह मरीचि भी गया । वहाँ देवताओं को प्रभु की महिमा करते देखकर और धर्म श्रवण कर समकित प्राप्त होने से तत्काल ही उसने चारित्र अंगीकार कर लिया। उत्तम रीति से यतिधर्म को जानकर, अपने शरीर से भी निस्पृह त्रिगुप्ति और पांच समिति को धारण कर और कषाय को वर्जित करते हुए महाव्रती मरीचि मुनि स्थविर साधुओं के समीप एकादश अंगों का अध्ययन करते हुए श्री ऋषभप्रभु के साथ विचरण करने लगे।
(गा. 25 से 31 )
इस प्रकार बहुत काल पर्यन्त विहार करते हुए एक बार ग्रीष्मऋतु आई । उस समय अति दारुण सूर्य किरणों से तप्त पृथ्वी की रज राहगीरों के चरणनखों को जलाने लगी । ऐसे समय में जिसके सर्व अंग स्वेद से आर्द्र हो गए और पहने हुए दोनों वस्त्र मल से लिप्त हो गये, ऐसे वे मरीचिमुनि तृषा से पीड़ित होने पर चारित्रावरणीय कर्म के उदय होने पर इस प्रकार विचार करने लगे 'मेरुपर्वत के भार को जिस प्रकार कोई वहन नहीं कर सकता, उसी प्रकार इस श्रमण धर्म के गुणों को वहन करने में मैं समर्थ नहीं हूँ । मैं तो निर्गुणी और भवाकांक्षी हूँ, परन्तु अब व्रतों का त्याग भी कैसे करूँ ? क्योंकि व्रतत्यागी होने पर लोक में लज्जित होना पड़ेगा । परंतु ऐसा एक उपाय करूं, जिससे व्रत भी कुछ रहे और ऐसा श्रम भी नहीं करना पड़े । ये श्रमण भगवन्त त्रिदंड से विरक्त हैं और मैं तो उन दंड से जीता हुआ हूँ, इसलिए मैं त्रिदंड का ही लंछन धरुं । ये साधु महाराज केशों के लोच से मुंडित हैं और मैं शस्त्र द्वारा मुंडन करवा कर शिखाधारी बनूं। ये मुनि महाव्रतधारी हैं, तो मैं अणुव्रत धारण कर लूँ । ये मुनि निष्किंचन है तो मैं मुद्रिकादिक परिग्रहधारी हो जाऊँ । ये महर्षि उपानह रहित विचरण करते हैं, परन्तु मैं तो चरणों की रक्षा के लिए पादुका रखूंगा। ये मुनिवृंद शील रूपी सुंगध से सुवासित हैं, परंतु शीलसुगंध से रहित मैं श्रीखंड चंदन का तिलक करूंगा । ये महर्षि कषाय रहित होने से शुक्ल और जीर्णवस्त्रधारी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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