________________
इतने में क्षुधातुर, तृषातुर, श्रांत, अपने सार्थ को शोधने में तत्पर. पसीने से सर्वांग लथपथ ऐसे अनेक मुनियों को उसी तरफ आते हुए देखा। 'ये साधुजन मेरा आतिथ्य करेगें, यह बहुत बढ़िया हुआ, ऐसा चिन्तन करते हुए नयसार ने उनको नमस्कार करके पूछा, कि 'हे भगवन्त! इस विशाल अटवी में आप कैसे आ पहुँचे ? क्योंकि शस्त्रधारी भी एकाकी इस भयानक अटवी में नहीं घूम सकता। तब उन्होंने कहा-'हम पहले हमारे स्थान से एक सार्थ के साथ चले थे। परंतु मार्ग में किसी गाँव में भिक्षा लेने के लिए गये। इतने में वह सार्थ आगे चला गया और हमको भिक्षा भी कहीं नहीं मिली, हम उसी मार्ग में सार्थ के पीछे पीछे चलने लगे, किन्तु वह सार्थ तो हमें कहीं नहीं मिला, वरन् इस महाअटवी में हम आ चढ़े। नयसार कहने लगा- अहो! वह सार्थ कैसा निदर्य! पाप से अभीरु! कैसा – विश्वासघाती! कि उसकी आशा से साथ चले साधुजनों को साथ लिए बिना अपने स्वार्थ में ही निष्ठुर बनकर आगे चल दिया। ऐसा कहकर नयसार उन महामुनियों को जहाँ अपना भोजन स्थान था, वहाँ ले आया। अपने लिए लाये हुए उस आहार पानी से उसने उन मुनियों को प्रतिलाभित किया। वहाँ से अन्यत्र जाकर विधिपूर्वक उन साधुओं ने आहार किया। इधर नयसार भी भोजन से निवृत्त होकर उन मुनियों के पास आया। उसने प्रणाम करके विनयपूर्वक कहा, हे भगवंत! चलो अब मैं आपको नगर में जाने का मार्ग बताऊँ। मुनि नयसार के साथ चलकर नगर के मार्ग पर आए। एक वृक्ष के नीचे बैठाकर उन्होंने नयसार को धर्म-शिक्षा दी। धर्म श्रवण कर आपनी – आत्मा को धन्य मानते हुए नयसार ने उसी समय समकित प्राप्त किया। पश्चात् उनको वंदन कर वह वापि; लौटा। सारी लकड़ियाँ राजा को भेजकर स्वयं अपने गाँव में लौट आया।
__(गा. 11 से 22) विपुल मनस्वी नयसार सदैव धर्म का अभ्यास करता हुआ, सात तत्त्वों का चिन्तन करता हुआ और समकित का परिपालन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। इस प्रकार धर्म-आराधना करता हुआ नयसार अंत समय में पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करके मृत्यूपरान्त सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की आयुष्य वाला देव हुआ।
(गा. 23 से 24)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)