________________
हैं, तो कषायवाला मैं तो कषायिक (रंगे हुए) वस्त्र रखूगा। इन श्रमणों ने तो असंख्य जीवों की विराधना से युक्त सचित्त जल के आरंभ का त्याग किया है, परन्तु मैं तो परिमित जल से स्नान-पान करूंगा। इस प्रकार स्वबुद्धि से विचार करके क्लेश कातर ऐसे मरीचि ने लिंग का निर्वाह करने हेतु त्रिदंडी संन्यास ग्रहण कर लिया।
(गा. 32 से 43) मरीचि का ऐसा नवीन विचित्र वेश देखकर सभी लोग उससे धर्म पूछते तो वह जिनेश्वर देव प्ररूपित साधुधर्म का ही कथन करता। जब लोग पुनः उससे पूछते कि “तुम उस साधुधर्म का आचरण क्यों नहीं करते? तो वह कहता कि-"मेरु पर्वत के भार जैसे साधुधर्म को वहन करने में मैं असमर्थ हूँ। अपने धर्म के व्याख्यान से प्रतिबोध पाकर जो भी भव्यजन साधुजीवन अंगीकार करना चाहते उनको मरीचि श्री नाभिसुनु ऋषमदेव प्रभु के पास भेज देता। ऐसे आचारवाला वह मरीचि प्रभु के साथ ही विहार करने लगा।
(गा. 44 से 47) एक वक्त प्रभु पुनः विनीता नगरी के समीप आकर समवसरे। भरत चक्री ने प्रभु को वंदन करके भावी अरिहंतादि के संबंध में पृच्छा की। अतः प्रभु ने भविष्य में होने वाले अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव का कथन किया। पश्चात् भरत ने पुनः पूछा कि 'हे नाथ! इस सभा में आपकी भांति इस भरतक्षेत्र में इसी चौबीसी में होने वाले तीर्थंकर का कोई भव्य जीव है ? उस समय प्रभु मरीचि को इंगित करने हुए बोले कि – “यह तुम्हारा पुत्र मरीचि इस भरतक्षेत्र में वीर नामका अंतिम तीर्थंकर होगा।" साथ ही पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नाम से प्रथम वासुदेव
और महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत मूकापुरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा।" यह सुनकर प्रभु की आज्ञा लेकर भरत मरीचि के पास आए और तीन प्रदक्षिणा देकर उसे वंदन करके कहने लगे कि-श्री ऋषभदेव प्रभु के कथनानुसार आप इस भरतक्षेत्र में चरम तीर्थंकर होंगे। पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नाम के पहले वासुदेव होंगे
और महाविदेहक्षेत्र की मूकापुरी में प्रियमित्र नाम के चक्रवर्ती होंगे। आप परिव्राजक हो, इसलिए मैं आपको वंदन नहीं कर रहा, परंतु भावी तीर्थंकर हो, अतः मैं आपको वंदन करता हूँ। इस प्रकार कहकर विनयवान् भरत चक्रवर्ती प्रभु को पुनः वंदन करके हर्षित होकर विनीता नगरी में आ गये।
(गा. 48 से 55)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)