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दिन अत्यधिक द्रव्योपार्जन किया। “पुण्यवान् पुरुषों के विदेश में भी लक्ष्मी साथ में आती है।' पश्चात् श्रेष्ठि ने श्रेणिक से पूछा कि आज तुम किस पुण्यवान गृहस्थ के अतिथि बने हो?' श्रेणिक बोले- आपका ही अतिथि बना हूँ।' श्रेष्ठी के चित्त में विचार हुआ कि 'आज रात्रि में स्वप्न में मैंने नंदा पुत्री के योग्य वर को देखा था, वह साक्षात् यही होगा।' तब सेठ ने कहा कि 'मैं धन्य हुआ कि मेरे घर आपके जैसे अतिथि पधारे। आज तो अकस्मात् आलसी के घर पर गंगाजी आ गये। सेठ ने दुकान बंद की और श्रेणिक को साथ लेकर अपने घर आये और श्रेणिक कुमार को स्नान करवाकर उत्तम वस्त्र पहना कर बहुत आदर से अपने साथ जिमाया।
(गा. 121 से 128) इस प्रकार उस श्रेष्ठी के घर पर रहते हुए एक दिन सेठ ने श्रेणिक के पास मांग की कि 'मेरी इस नंदा नाम की पुत्री को तुम ग्रहण करो। श्रेणिक ने कहा, मेरा कुल जाने बिना आप पुत्री कैसे दे रहे हो?' श्रेष्ठी ने कहा, तम्हारे गुणों से ही तुम्हारा कुल मैंने जान लिया है। पश्चात् सेठ के अति आग्रह से लक्ष्मी जैसे विष्णु को परणते हैं, वैसे श्रेणिक नंदा को परणा। श्रेष्ठी के गृह में धवलमंगल प्रवर्तने लगा। उस वल्लभा के साथ विविध भोगों को भोगते हुए श्रेणिक निकुंज में गजेन्द्र के समान बहुत काल तक वहाँ रहा।
(गा. 129 से 132) इधर राजा प्रसेनजित् को अचानक रोग की पीड़ा हो गई, इससे उन्होंने अत्यधिक खेदपूर्वक शीघ्र ही श्रेणिक की शोध के लिए अनेक सांढणियाँ भेजी। वे सांढ वाले व्यक्ति घूमते-घूमते वेणातट में आकर श्रेणिक को मिले। उनके पास से पिता को हुई पीड़ा की बात सुनी। नंदा को स्नेह से समझाकर सेठ की इजाजत लेकर श्रेणिक अकेले ही वहाँ से चल दिये। निकलते समय उसने 'जिस की उज्जवल दीवारें हैं, ऐसी राजगही नगरी का मैं गोपाल (गो पृथ्वी गोपाल = राजा) हैं।" ऐसे निमंत्रण मंत्र जैसे अक्षर उसको अर्पित किया। पश्चात् पिता को रोग से पीड़ित जानकर श्रेणिक सांढ पर चढ़कर जल्दी-जल्दी राजगृह नगर की ओर चल दिये और वहाँ पहुँचे। उसे आया देखकर प्रसेनजित् राजा अत्यन्त हर्षित हुआ। हर्ष के अश्रुजल के साथ सुवर्ण कलश के निर्मल जल से राज्य पर उसका अभिषेक किया। पश्चात् प्रसेनजित् राजा ने पार्श्वप्रभु का एवं पंच नमस्कार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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