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कि ' तूने' मात्र वाद्य ही क्यों लिया ? श्रेणिक बोला- “ यह भंभावाद्य राजाओं का प्रथम जय चिह्न है । इसके शब्द से राजाओं को दिग्विजय में मंगल होता है इससे उनको इस वाद्य की प्रथम रक्षा करनी चाहिये ।” श्रेणिक कुमार की इस प्रकार का महेच्छत्व देखकर प्रसन्न होकर राजा ने उसका भंभासार ऐसा दूसरा नाम रखा। राजा प्रसेनजित् ने पहले प्रतिज्ञा पूर्वक कहा था कि जिसके घर में से अग्नि प्रज्वलित होगी उसे नगर में रहना नहीं, वह यह बात भूला नहीं था इससे उसने विचार किया कि 'यदि मैं प्रथम मेरे ऊपर मेरी आज्ञा का अमल नहीं करूं तो दूसरों पर शासन करना किस काम का ?' इस विचार के अनुसार राजा ने परिवार सहित तुरंत ही कुशाग्रनगर छोड़ दिया एवं एक कोस दूर जाकर छावणी डालकर वहाँ रहे । फिर लोग वहाँ जाते समय परस्पर पूछते कि, 'तुम कहाँ जाते रहे हो? तब वे प्रत्युत्तर देते कि हम राजगृह (राजा के घर ) में जा रहे हैं। इस पर राजा प्रसेनजीत ने वहाँ राजगृह नामक नगर बसाया और उसे खाई, किल्ला, चैत्य, महल और चौरे चौटे से अत्यन्त रमणीय बनाया।
(गा. 105 से 117)
'दूसरे कुमार अपने में राज्य की योग्यता मानते हैं, इससे श्रेणिक की राज्य योग्यता वे न जाने तो ठीक रहे' ऐसा सोचकर राजा ने श्रेणिक का अनादर किया और अन्य कुमारों को अलग अलग देश किये, जबकि श्रेणिक को कुछ भी नहीं दिया। कारण कि वह तो समझता था कि परिणाम स्वरूप यह राज्य श्रेणिक का ही है। परंतु इस प्रकार अपना अपमान होने से अभिमानी श्रेणिक वन में हाथी के बच्चे के समान नगर से बाहर निकल गया अनुक्रम से घूमता हुआ वेणातटपुर में आया ।
(गा. 118 से 120)
वेणातट नगर में प्रवेश करके श्रेणिककुमार भद्र नाम के किसी श्रेष्ठी के दुकान पर मानो मूर्तिमान लाभोदय कर्म हो, वैसे बैठ गया । उस समय नगर में कोई बड़ा उत्सव हो रहा था, इस कारण लोग नवीन दिव्य वस्त्रालंकार और अंगराग धारण करके धूम रहे थे। उस प्रसंग के कारण सेठ की दुकान पर बहुत से ग्राहक भिन्न २ वस्तुएँ खरीदने के लिए आने से सेठ आकुल व्याकुल हो गए। परंतु श्रेणिक उनको जो जो वस्तु मांगते उन सबको पुडिया बांध बांध कर चालाकी से देने लगा । श्रेणिक कुमार के प्रयास से सेठ ने उस
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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