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से द्वारपाल ने द्वार बंद कर रखा था, इसलिए उस भिक्षुक को कौन देखे? इसलिए सेतु से जलप्रवाह की तरह वह स्खलित होकर जिस मार्ग से आया था, वापिस उसी मार्ग से वापिस चला गया। पुनः दूसरे मासक्षमण का निश्चय करके उसने उष्ट्रिका व्रत लिया और किंचित भी कोप न करते हुए रहने लगा। क्योंकि “महर्षिजन तप की वृद्धि से हर्ष प्राप्त करते है” दसरे दिन राजा स्वस्थ हुए तब तापस को दिया आमंत्रण याद करके वह उनके पास आकर नमन करके तथा क्षमा मांगकर बोला कि, “ महर्षि मैने आपको पुण्य के लिए निमन्त्रण दिया था, परन्तु इससे तो उल्टा मैंने पाप उपार्जन कर लिया। 'प्रायः पापियों का पाप ही अतिथि होता है।' हे भगवान्! मैंने तो अन्य स्थल से भी आपका पारणा अटका दिया, कारण कि अतप्ता को प्रिय आलाप अन्य स्थान से लाभ होने से भी
अन्तराय करता है। परन्तु अब प्रसन्न होकर दूसरे मासक्षमण के पारणे के समय नंदनवृक्ष को कल्पवृक्ष की तरह मेरे गृहांगण को अलंकृत करिएगा।" तापस ने वह बात स्वीकार की। तब राजा स्वस्थान लौट गया।
(गा. 25 से 35) उनके पारणे के दिन को राजा प्रतिदिन अंगुली पर गिनता रहता था। जब मासक्षमण पूर्ण हुआ, तप तापस राजा के घर आया। उस वक्त भी पूर्व की भांति राजा का शरीर व्याधिग्रस्त था। पुनः पुनः ऐसे बनाव से राजकीय व्याक्तियों ने उस समय विचार किया कि “जब जब यह तपस्वी यहाँ आता है, तब तब अपने राजा का अशिव हो जाता है।' इससे उन्होंने रक्षकों को आज्ञा दी वह तापस मंत्रीपुत्र है, परंतु जब यह राजमंदिर में प्रवेश करे तब, तुम उसे सर्प की तरह निकाल देना। रक्षकों ने वैसा ही किया। तब तापस ने क्रोधित होकर नियाणा किया कि, मैं मेरे तपोबल से राजा के वध के लिए उत्पन्न होऊं। वह मृत्यु के पश्चात् अल्प ऋद्धि वाला वाणव्यंतर देव हुआ। राजा भी तापस बनकर उसी गति को पाए। वहाँ से च्यवकर सुमंगल राजा का जीव प्रसेनजित् राजा की रानी धारिणी के उदर से श्रेणिक नामक पुत्र हुआ।
__ (गा. 36 से 45) उसी नगर में नाग नाम का एक रथिक था, वह प्रसेनजित् राजा के चरणकमल में भ्रमररूप था। इसी प्रकार वह दया और दान में आदरवाला, परनारी का सहोदर, वीर, धीर और सर्व कला का अध्येता था। फल स्वरूप
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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