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लगा हो, वैसा पर्वत के समान वह दिखाई देता था । उलूक के समान चिपटा नाक था मार्जार की भांति उसके पिंगल नेत्र थे। ऊंट के जैसी उसकी लंबी गर्दन और लम्बे होठ थे। मूषक जैसे छोटे-छोटे कान थे, कंद के अंकुर जैसी दंतपंक्ति मुख से बाहर निकली हुई थी । जलोदर वाले के समान उसका पेट था, गांव के सूअरों जैसी छोटी २ सांथल थी। मंडल स्थानवत् आसन लगाया हो वैसी उसकी वांकी जंघा थी और सूपड़े के जैसे उसके पैर थे । ये बिचारा दुराचारी जहाँ जहाँ घूमता वहाँ वहाँ हास्य का ही एक छत्र राज्य होता था । जब जब यह सेनक दूर से आता था तब तब राजपुत्र सुमंगल उसके विकृतरूप को देखकर हंसता था ।
(गा. 11 से 19 )
इस प्रकार रातदिन राजपुत्र उसका उपहास्य करता, जिससे उसे अंत में अपमान रूप वृक्ष के महाफल रुप वैराग्य उत्पन्न हुआ और वैराग्य होते ही यह मंदभागी सेनक उन्मत्त की तरह हृदयशून्य होकर शहर में से निकल गया। मंत्रीपुत्र के जाने के पश्चात् कुछ समय में राजा जितशत्रु ने सुमंगल कुमार को अपने राज्यसिंहासन पर आरुढ़ किया। सेनक ने जंगल में घूमते हुए किसी एक कुलपति तापस को देखा। उनके पास तापस बनकर उसने उष्ट्रिका व्रत ग्रहण किया। तीव्र तप से सदैव अपनी आत्मा को कदर्थना देता हुआ सेनक एकदा बंसतपुर नगर मे आया।
(गा. 20 से 24 )
उस मंत्रीपुत्र को तापस रूप में देखकर सर्वलोग उसकी पूजा करने लगे । लोगों ने उसे वैराग्य उत्पन्न होने का कारण पूछा, तो वह कहने लगा कि, 'सुमंगलकुमार बार - बार मेरे विरुप का हास्य करता था, इससे मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया एवं वह हास्य मेरे तपलक्ष्मी की जमानत रूप हो गया है।' यह समाचार सुनकर सुमंगलकुमार भी उसे नमन करने के लिए आया और उससे अनेक प्रकार से क्षमापना करके आदर सहित उसे पारणे को निमन्त्रण दिया । सेनक तापस ने राजा को आशीष देकर उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया, इससे राजा कृतार्थ हुआ हो, वैसे हर्षित होता हुआ अपने घर गया। जब मासक्षमण संपूर्ण हुआ, तब राजा की प्रार्थना को याद करके वह तापस शांत होकर राजभवन के द्वार पर आया । उस समय राजा का स्वास्थ्य ठीक न होने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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