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षष्ठम् सर्ग श्रेणिक राजा को समकित लाभ और मेघकुमार तथा नंदीषेण की दीक्षा
इस भरतक्षेत्र में कुशाग्रपुर नामक नगर में कुशाग्रबुद्धि वाला प्रसेनजित् राजा था। सर्व दिशाओं को अलंकृत करता उसका अपार कीर्तिसागर शत्रुओं की कीर्ति रूप सरिता को ग्रसित करता था। उसके सैन्य का संग्रह मात्र राज्य शोभा के लिए था। क्योंकि उसके वैरी रूप बाघ तो उसके प्रताप रूपी अग्नि से ही नष्ट हो गये थे। वह हाथ लंबे करने वाले सर्व याचकों को द्रव्य देता था, परंतु उनके साथ स्पर्धा हो वैसे वह उनको देते हुए अपने हाथ संकुचित नहीं करता। रणभूमि में उड़ी हुई रज से अंधकार होने पर विजयलक्ष्मी अभिसारिका होकर अपने अपने पतियों को छोड़कर वह राजा को ही सर्वांग आलिंगन करती थी। सदाचारी में शिरोमणि ऐसे उस राजा के शुद्ध हृदय में घट्ट केशपाश में अधिवास के समान जिनधर्म स्थिर रहा हुआ था। श्री पार्श्वनाथ प्रभु के शासन रूपी कमल में भ्रमर जैसा वह सम्यग्दर्शन से पुण्यात्मा होकर अणुव्रतधारी था। राजशिरोमणि प्रसेनजित् राजा के इंद्र की देवियों के समान विवाहित राजकन्याओं का विशाल अंतःपुर था। पृथ्वी पर राज्य करते वे इंद्र के समान राजा की मानो दूसरी मूर्तियाँ हो वैसे अनेक पुत्र हुए थे।
__ (गा. 1 से 10) इसी समय में भरतक्षेत्र में वसंतपुर नामक नगर में जितशत्रु नामक यथार्थ नामवाला राजा था। उसके पृथ्वी पर उतरी हुई देवी हो वैसी गुणरत्नों की खान अमरसुंदरी नाम की पट्टरानी थी। उस दम्पत्ति के सुमंगल नामका एक पुत्र था, जो कि मंगल का निवास स्थान, रूप में कंदर्प जैसा और कलानिधि चंद्र जैसा था। सेनक नामक मंत्रीपुत्र उसका मित्र था। वह शारीरिक सर्व लक्षणों का प्रथम दृष्टान्त रूप था। उसके केश पीले थे, जिससे जिसके शिखर पर दावानल
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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