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किंचित् मस्तक नमाकर अनुक्रम से परिपाटी के अनुसार उपस्थित हुए । तब 'द्रव्य, गुण और पर्याय से तुमको तीर्थ की अनुज्ञा है' ऐसा कहते हुए प्रभु ने प्रथम इंद्रभूति गौतम के मस्तक पर वह चूर्ण डाला । पश्चात् अनुक्रम से अन्य के मस्तक पर वह चूर्ण डाला। तब देवताओं ने प्रसन्न होकर चूर्ण और पुष्पों की वृष्टि ग्यारह ही गणधरों पर की । 'यह चिंरजीवी होकर धर्म का चिरकाल तक उद्योत करेगा', ऐसा कहकर प्रभु ने सुधर्मा गणघर को सर्वमुनियों में मुख्य करके गण की अनुज्ञा दी । तब साध्वियों में संयम के उद्योग की घटना के लिए प्रभु ने उस समय चंदना को प्रवर्तिनी पद पर स्थापित किया ।
(गा. 175 से 181)
इस प्रकार प्रथम पौरुषी पूर्ण हुई, तब प्रभु ने देशना समाप्त की । तब राजाओं ने तैयार किया हुआ बली पूर्व द्वार से सेवक पुरुष लाए। वह बली आकाश में उड़ाते हुए उनमें से अर्ध बली आकाश में से ही देवगण ले गए एवं अर्ध भूमि पर गिरे। उसमें से आधा भाग राजा एवं शेषभाग अन्य लोग ले गए। पश्चात् प्रभु सिंहासन से उठकर देवच्छंद में विराजे । तब गौतम गणधर ने प्रभु के चरणपीठ पर विराजित होकर देशना दी। दूसरी पौरुषी पूर्ण होने पर वृष्टि से नवीन मेघ की तरह गौतम ने भी देशना से विराम लिया । सर्व विश्व का उपकार करने में तत्पर और सुरअसुर तथा राजावृंद जिनके चरणकमल की सेवा कर रहे हैं, ऐसे श्री वीरप्रभु कितनेक दिन तक वहीं पर रहकर लोगों को प्रतिबोध देकर वहाँ से अन्यत्र पृथ्वी पर विचरण करने लगे।
(गा. 182 से 186 ) इति आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि विरचित त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र महाकाव्य के दशम पर्व में श्री महावीर केवलज्ञान चतुर्विध संघोत्पत्ति वर्णन नामक पंचम सर्ग
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )