SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसके पश्चात् प्रभास आए। उसे देख प्रभु ने कहा- “प्रभास! मोक्ष है या नहीं? ऐसा तुझे संदेह है। परंतु इस विषय में तू जरा भी संदेह रखना नहीं। कर्म का क्षय वह मोक्ष है। वेद से और जीव की अवस्था की विचित्रता से कर्म सिद्ध ही है। शुद्ध ज्ञान, दर्शन और चारित्र से कर्म का क्षय होता है, इससे अतिशय ज्ञान वाले पुरुषों को मोक्ष प्रत्यक्ष भी होता है।" स्वामी के इन वचनों से प्रतिबोधित होकर प्रभास ने भी तीन सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की। इसी समय शतानीक राजा के घर में स्थित चंदना ने आकाश मार्ग से जाते-आते देवताओं को देखा। इससे वीर प्रभु को केवलज्ञान की उत्पत्ति होने का निश्चय होने पर व्रत लेने की इच्छा हुई। पश्चात् समीपस्थ देवता उसे श्री वीर प्रभु की पर्षदा में ले आए। ___ (गा. 156 से 162) __ प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर नमन करके दीक्षा लेने को उत्सुक होकर खड़ी रही। उस समय अन्य अनेक राजाओं तथा आमात्यों की पुत्रियाँ भी दीक्षा लेने को तैयार हुई। प्रभु ने चंदना को अग्रणी बनाकर उन सबको दीक्षा दी एवं हजारों नर नारियों को श्रावकत्व में स्थापित किये। इस प्रकार चतुर्विध संघ की स्थापना होने के पश्चात् प्रभु ने इंद्रभूति आदि को ध्रौव्य, उत्पादक और व्ययात्मक त्रिपदी का उपदेश दिया। उस त्रिपदी से उन्होंने आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती अंग, ज्ञाताधर्मकथा, उपासक, अंतकृत, अनुत्तरोपपादिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद इस प्रकार बाहर अंगों की रचना की।एवं दृष्टिवाद में चौदह पूर्व भी रचे। उनके नाम हैं- उत्पाद, आग्रायणीय, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्म प्रवाद, कर्म प्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्याप्रवाद, कल्याण, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिंदुसार इस प्रकार ये चौदह पूर्व गणधरों ने अंगों से पूर्व रचे इससे ये पूर्व कहलाये। इस प्रकार रचना करते गणधरों की सूत्रवांचना परस्पर भिन्न हुई और अकंपित, एवं अचलभ्राता की, इसी प्रकार मेतार्य और प्रभास की परस्पर एक समान वांचना हुई। श्री वीरप्रभु को ग्यारह गणधर होने पर भी उनकी दो दो वांचना समान होने से गण (मुनि समुदाय) नौ हुए। __(गा. 163 से 174) इसी समय इंद्र तत्काल सुगन्धित रत्नचूर्ण से परिपूर्ण पात्र लेकर उठे और प्रभु के समक्ष खड़े हुए। तब इंद्रभूति आदि भी प्रभु की अनुज्ञा लेने के लिए त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 123
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy