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वह सर्वगुणों का एक स्थानरूप मान्य किया जाता। उसके सुलसा नामकी स्त्री थी। वह पुण्यकर्म में अप्रमत्त तथा देहधारी पुण्यलक्ष्मी हो, ऐसी थी । साथ में धूलक्रीड़ा करनेवाले बालकों की तरह उसमें पतिव्रता, समकित, सरलता आदि गुण एक साथ रहते थे। एक बार नाग रथिक स्वयं अपुत्र होने की वजह से नाल सहित कमल के समान कर पर मुख रखकर चिंता करने लगा कि 'मैं पुत्र को हुलराऊँ और उसका लालन पालन करूँगा ऐसा मेरा मनोरथ पुत्र के बिना अवकेशी ( वंध्य) वृत्र की तरह निष्फल हो गया । जिन्होंने बालवय में ब्रह्मचर्य का पालन किया नहीं और युवावस्था में पुत्र का मुखदर्शन किया नहीं, उनके दोनों लोकों का ठगनेवाले कामीपने को धिक्कार है ।"
(गा. 46 से 52 )
इस प्रकार कीचड़ में फंसे हाथी की तरह चिन्तामग्न हुए और जिनका मुख विवर्ण हो गया ऐसे पति की स्थिति को देखकर सुलसा ने उनको विनय से अंजलीबद्ध होकर कहा, कि "हे नाथ! आपने हस्त रूपी शय्या पर मुख रखा है जो कि आपको कुछ चिंता सता रही है, यह निर्देश कर रहा है, तो आप क्या चिंता कर रहे हैं ? वह कहिये एवं मुझे भी उसमें भागीदार बनाईये ।" नागसारथी बोला कि “मैं अपुत्र हूँ, पुत्र प्राप्ति की अति वाञ्छा है, परंतु पुत्र या पुत्री का इच्छुक मुझे उसकी प्राप्ति का कोई भी उपाय सूझता नहीं है ।" सुलसा बोली'स्वामी आप अन्य कन्याओं के साथ विवाह कर लीजिए। उनमें से क्या एक भी पुत्र का प्रसव करने वाली नहीं होगी ?" नाग बोला- “ही प्रिये ! इस जन्म में मैं तुझ से ही स्त्रीवाला रहने वाला हूँ, दूसरी स्त्री से कभी भी विवाह करने वाला नहीं हूँ, तो उनसे पुत्रों की तो बात क्या करनी ? हे प्रियदर्शना! तो तेरे से ही हुए पुत्र की इच्छा करता हूँ, जो कि चिरकाल तक अपने दोनों की प्रीतिरूप वल्ली में फल रूप हो। तू ही मेरा प्राण है, शरीर मंत्री और मित्र हो तो पुत्र के लिए किसी देव की मानता करने रूप यत्न कर। सुलसा बोली- 'प्रिय स्वामी ! मैं श्री अर्हन्त प्रभु की आराधना करूंगी। क्योंकि अर्हन्त की आराधना सर्वकार्य में इच्छित फल दाता हैं।” पश्चात् सुलसा आचाम्ल आदि दुस्सह तप करके जन्म से ही पवित्र ऐसी अपनी आत्मा को विशेष रूप से पवित्र करने लगी। विकसित नव मल्लिका की तरह मोती के आभूषण पहनने लगी । कसुंबी वस्त्रों से अरुण अभ्रवाली प्रातः काल की, संध्या की जैसी दिखने लगी और वीतराग की पूजा
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
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