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और सूक्ष्म है।' स्वादिदत्त ने पुनः प्रश्न किया कि 'वह सूक्ष्म है, परंतु है कहाँ ? वह स्पष्ट रूप से बताओ ।' प्रभु ने कहा कि, 'वह इंद्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। ऐसे प्रश्नोत्तर से उस ब्राह्मण ने प्रभु को तत्त्ववेत्ता जानकर, भक्ति से प्रभु की पूजा की और प्रभु ने भी भव्य जानकर उसे प्रतिबोध दिया। चातुर्मास सम्पन्न करके प्रभु जृंभक गाँव में आए। वहाँ इंद्र नाट्यविधि प्रदर्शित करके बोले कि ‘हे जगद्गुरु! अब अल्प दिनों के पश्चात् आपको उज्जल केवल ज्ञान उत्पन्न होगा ।' प्रभु भी वहाँ से प्रस्थान करके मेढक गाँव में आए। वहाँ चमरेन्द्र ने आकर प्रभु को वंदना की एवं सुखविहार पूछकर अपने स्थान पर गये। (गा. 605 से 617)
पश्चात् वहाँ से प्रस्थान करके प्रभु षड्गमानि गाँव में गए। वहाँ कायोत्सर्ग करके ध्यानपरायण होकर गांव के बाहर रहे। इस समय वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में तपाहुआ शीशा डालकर उपार्जित किया अशातावेदनीय कर्म उदय में आया। वह शय्यापालक का जीव यहाँ एक ग्वाला बना था। वह प्रभु के समीप अपने बैल रखकर गायें दुहने के लिए गया। वे बैल स्वेच्छा से चरते चरते किसी अटवी में दूर चले गये । क्षणभर में वह ग्वाला वापिस आया । उसे वहाँ बैल दिखाई नहीं दिये । तब उसने प्रभु से कहा कि, 'अरे! अधम देवार्य। मेरे बैल कहाँ गये ? तू बोलता क्यों नहीं है ? क्या मेरे वचन तुझे सुनाई नहीं दिये ? ये तेरे कान के छिद्र क्या मुफ्त के हैं ?' ऐसा कहने पर भी जब प्रभु बोले नहीं, तब उसने अत्यन्त क्रोध करके प्रभु के दोनों कर्णरंध्र में काशडा की शलाकाएँ डाली। वे शलाकाएँ ताड़न करने से परस्पर ऐसी मिल गई कि मानो वह अखंड एक ही कील हो, ऐसी दिखाई देने लगी। पश्चात् ये कीलें कोई निकाल न सके, ऐसा सोच कर, वह दुष्ट ग्वाला उसका बाहर दिखाई देने वाला भाग काट कर चला गया । माया और मिथ्यात्व रूपी शल्य जिनके नाश हो गए ऐसे प्रभु के कान में डाले उन शल्यों से प्रभु शुभ ध्यान से किंचित् मात्र भी विचलित नहीं हुए। वहाँ से प्रभु मध्यम अपापा नगरी में पधारे। वहां पारणे के लिए प्रभु सिद्धार्थ वणिक के आवास पर आए। उसने भक्ति से प्रभु को प्रतिलाभित किया। वहाँ उस सिद्धार्थ का एक खरक नाम का प्रियमित्र वैद्य पहले से ही आया हुआ था। सूक्ष्म बुद्धि सम्पन्न होने से प्रभु को देखते ही वह विचार करके बोला कि, 'अहो! भगवंत की मूर्तिमन्त देह सर्व लक्षणों से संपूर्ण है, परंतु किंचित् म्लानभूत ज्ञात होती है । मानों शल्ययुक्त हो ऐसा लगता है।' सिद्धार्थ ने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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