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क्योंकि वे मेरा पालन पोषण करने से मेरे पिता है।' पश्चात् धनावह सेठ ने वह द्रव्य ग्रहण किया। पश्चात् इंद्र ने पुनः शतानीक राजा को कहा कि 'यह बाला चरमदेही है, भोगतृष्णा से विमुख है।' इससे जब वीरप्रभु को केवलज्ञान, उत्पन्न होगा, तब वह उनकी प्रथम शिष्या होगी, इसलिए जब प्रभु को केवलज्ञान हो, तब तक तुमको इसका रक्षण करना होगा । ऐसा कहकर इंद्र प्रभु को नमन करके देवलोक में गये । राजा शतानीक ने चंदना को अपने यहाँ ले जाकर कन्याओं के अंतःपुर में रखी। चंदना भी प्रभु को केवलज्ञान की उत्पत्ति का ध्यान करती हुई वहाँ रही। वह मूला सेठानी जो अनर्थ का मूल थी, उसे घनावह सेठ ने निकाल दी। वह दुर्ध्यान से मृत्यु प्राप्त कर नरक में गई ।
(गा. 593 से 600)
प्रातः काल में प्रभु वहाँ से विहार करके सुमंगल गाँव में आए। वहाँ सनत्कुमार इंद्र ने आकर प्रभु को वंदना की । वहाँ से प्रभु सत्क्षेत्र नामक गांव में आए। वहाँ माहेन्द्र कल्प के इंद्र ने आकर प्रभु को भक्ति से नमन किया । वहाँ से प्रभु पालक गाँव में आए। वहाँ भायल नामक कोई वणिक यात्रा करने जा रहा था, उसने प्रभु को सन्मुख आते हुए देखा । तब 'इस भिक्षुक का अपशकुन हुआ, इसलिए इसके मस्तक पर खड्ग से प्रहार करूँ ।" ऐसा सोचकर खड्ग निकालकर वह प्रभु को मारने के लिए दौड़ा। उस समय सिद्धार्थ व्यंतर ने आकर उसी खड्ग से उसका ही मस्तक छेद डाला ।
(गा. 601 से 604)
प्रभु वहाँ से विहार करके चंपानगरी में आए। वहाँ स्वादिदत्त नाम के किसी ब्राह्मण की अग्निहोत्र की शाला में प्रभु चार महिने के उपवास करके बारहवें चौमासे में वहाँ रहे । वहाँ पूर्णभद्र और माणिभद्र नामके दो महर्द्धिक यक्ष प्रतिदिन रात्रि में आकर प्रभु की पूजा करते थे । यह देखकर स्वादिदत्त ने विचार किया कि 'ये देवार्य कुछ जानते होंगे, जिससे प्रत्येक रात्रि में उनके पास आकर देवतागण उनको पूजते हैं।' ऐसा चिंतन करके जिज्ञासु स्वादिदत्त प्रभु के पास में आया, एवं पूछा कि 'देवार्य! सिर आदि अंगों से पूर्ण इस देह में जीव किसे कहा जाय ? प्रभु ने फरमाया कि 'देह में रहने पर भी जो अहं (मैं) ऐसा मानते हैं, वह जीव है ।' स्वादिदत्त ने कहा कि 'वह किस प्रकार समझना ?' भगवंत बोले- 'हे द्विज! मस्तक, हाथ, आदि जो अवयव हैं, उससे वह भिन्न है
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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