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संभ्रम से कहा, 'यदि ऐसा है तो अच्छी तरह से तलाश करके कह कि भगवंत के शरीर में किस स्थान में कीलें हैं ? फिर उस वैद्य ने प्रभु के संपूर्ण शरीर की निपुणता से तलाश की तब दोनों कानों में उसे कीलें दृष्टिगत हुई। तब उसने वे सिद्धार्थ को भी बताई। सिद्धार्थ बोला कि 'अरे! किसी अपवाद से या नरक से भी भयभीत नहीं होने वाले किसी पापी ने यह दारुण कर्म किया लगता है। परंतु हे महामति मित्र! उस पापी की बात करना जरुरी नहीं, अब तो प्रभु के शरीर में से शल्योद्धार करने का प्रयत्न कर ये शल्य तो प्रभु के कान में है, परंतु मुझे अत्यन्त पीड़ा हो रही है। इस विषय में मैं किंचित् मात्र भी विलम्ब सहन नहीं कर सकता। मेरा सर्वस्व भले ही नाश पाए, परंतु इन जगत्पति के कान में से किसी भी प्रकार से शल्य का उद्धार हो जाय तो अपन दोनों का इस भवसागर से उद्धार हुआ ऐसा मैं मानता हूँ। वैद्य बोले- 'यद्यपि ये प्रभु विश्व का रक्षण
और क्षय करने में समर्थ हैं, तथापि कर्मक्षय करने के लिए उन्होंने उस अपकारी पुरुष की उपेक्षा की है, ऐसे प्रभु कि जो अपने शरीर की भी अपेक्षा रहित हैं, मुझ से उनकी चिकित्सा किस प्रकार हो? क्योंकि ये कर्म की निर्जरा के लिए इस प्रकार की वेदना को भी अच्छी मानते हैं। सिद्धार्थ बोला- हे मित्र! इस प्रकार की वचनयुक्ति इस समय किसलिए करते हो? ऐसी बात करने का यह समय नहीं है, इसलिए शीघ्र ही भगवत की चिकित्सा करो।' ये दोनों इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि इतने में तो शरीर से भी निरपेक्ष प्रभु वहाँ से चले गये। बाहर उद्यान में आकर शुभ ध्यान में परायण हुए। सिद्धार्थ और खरक वैद्य
औषध आदि लेकर शीघ्र ही उद्यान में आए। प्रभु को एक तेल की कुंडी में बिठाया, उनके शरीर में तेल का अभ्यंगन किया, और बलवान् चंपी करने वाले मनुष्यों से मर्दन कराया। उन बलिष्ट पुरुषों ने प्रभु के शरीर के तमाम सांधों (जोड़ो) को शिथिल कर डाले। पश्चात् उन्होंने दो संडासी लेकर प्रभु के दोनों कानों से दोनों कीलें एक साथ खींची। तब रुधिर सहित दोनों कानों से दोनों कीलें मानों प्रत्यक्ष अवशेष वेदनीय कर्म निकलता हो, वैसे निकल आये। उन कीलों को खींचते समय प्रभु को ऐसी वेदना हुई कि उस समय वज्र से आहत पर्वत की भांति प्रभु के मुख से भयंकर चीख निकल गई। प्रभु के महात्म्य से ही उस चीख के नाद से वह पृथ्वी फूटी नहीं। “अर्हन्त प्रभुजी विपत्ति में भी अन्य को उपद्रवकारी नहीं होते।' पश्चात् संरोहिणी औषधि द्वारा प्रभुजी के कान को तत्काल ही सुखा दिया। खमाकर तथा नमन करके सिद्धार्थ और खरक वैद्य अपने घर गए। वे शुभाशय
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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