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भी गाते गाते उसी तरफ निकल गये। उनके गीतों से आकर्षित होकर मृगों के सदृश पुरजन एकत्रित हो गए। उस समय किसी ने राजा के पास आकर कहा कि इन दोनों चांडालों ने अपने नगर जनों को गीतों से आकर्षित करके अपने समान मलिन कर दिया है। तत्काल राजा ने कोतवाल को बुलाकर आक्षेप पूर्वक हुक्म किया कि – “इन दोनों चांडालों को नगरी के किसी भी प्रदेश में घुसने नहीं देना।" कोतवाल ने उनको जानकारी दी, फलस्वरूप वे उस दिन से वाराणसी से दूर रहने लगे। एक बार वाराणसी में कौमुदी उत्सव आया, तब इंद्रियों की चपलता से उन्होंने राजा के शासन का उल्लंघन करके जैसे भ्रमर हाथी के गंड स्थल मे प्रवेश करता है वैसे उन्होंने उस नगरी में प्रवेश किया। सर्व अंग पर बुरखा डालकर उत्सव को देखने के लिए वे चोर की भांति सम्पूर्ण नगरी में गुप्त रीति से घूमने लगे। घूमते घूमते जैसे सियार दूसरे सियार के साथ शब्द मिलाकर बोलता है, वैसे ही नगरजनों के गीतों के साथ अपना स्वर मिलाकर वे तारस्वर से गाने लगे। क्योंकि “भवितव्यता का उल्लंघन करना अशक्य है।'' कान को अत्यन्त मधुर लगे ऐसा उनका गीत सुनकर जैसे मधु पर मक्खियां मंडराती हैं, वैसे ही नगरजन उन के चारों ओर घूमने लगे। पश्चात् ये दोनों कौन हैं? यह जानने के लिए लोगों ने उनके शरीर से बुरखे खींच लिए। तब अरे ये तो वे चांडाल ही हैं, ऐसे आक्षेपपूर्वक वे बोल उठे। पश्चात् नगरजन लकड़ियों और पत्थरों से उनको कूटने लगे। तब घर में से श्वान की तरह वे गर्दन नीची करके नगर से बाहर निकल गये। लोगों
और बालकों के समूह से मार खाते हुए वे मुश्किल से धीरे-धीरे गंभीर उद्यान में आये। वहाँ स्थित रहकर वे विचार करने लगे कि सर्प ने सूंघा हो, ऐसे दूध की तरह हीनजाति से दूषित ऐसी अपनी कला, कौशल्य और रूप को धिक्कार है! हमारा गायन आदि से किया उपकार हमें अपकार रूप हासिल हुआ है। शांति कार्य करते हुए उलटे बे-ताल उत्पन्न हो गया और सर्व अनर्थ का कारण तो यह शरीर ही है, इसलिए इसे किसी भी प्रकार तृण के समान त्याग देना चाहिए। ऐसा निश्चय करके प्राण त्यागने में तत्पर हुए। वे मानो साक्षात् मृत्यु को देखने जाते हो, वैसे दक्षिण दिशा की ओर चल दिये।
(गा. 36 से 51)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)