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को सौंप दिया। उसने नमुचि से कहा कि यदि तुम मेरे पुत्रों को भूमिगृह ( तलघर ) में रहकर गुप्त रीति से पढ़ाओ तो मैं मेरी आत्मा के समान तेरी गुप्त रीति से रक्षा करूँ । नमुचि ने मातंगपति का यह वचन मान्य किया, क्योंकि मनुष्य जीवन के लिए क्या न करें ? पश्चात् नमुचि चित्र और संभूत को विचित्र कलाओं का अभ्यास कराने लगा । कुछ दिनों में वह नमुचि अनुरागी हुआ। उस चांडाल की स्त्री के साथ रमण करने लगा। इस बात की जानकारी होने पर भूतदत्त ने उसे मारने का निश्चय किया। अपनी स्त्री के साथ व्याभिचार करने वाले व्याभिचारी का दोष कौन सहन करे ? इसकी जानकारी चित्र और संभूत को होने पर उन चांडाल पुत्रों ने भय बताकर नमुचि को भगाकर उसके प्राणरक्षण रूप विद्याभ्यास की दक्षिणा उन्होनें दी । वहाँ से भागकर वह नमुचि हस्तिनापुर में आया । वहाँ सनत्कुमार चक्री ने उसे प्रधान बनाया ।
(गा. 22 से 29 )
इधर चित्र और संभूत नवयौवन वय को प्राप्त हुए, मानों अश्विनी कुमार किसी हेतु से पृथ्वी पर आए हों, ऐसे दिखने लगे। हा हा और हूहू गंधर्व को भी उपहास्य करे, ऐसा अति मधुर गीत वे गाने लगे और नारद तथा तुंबरू का भी तिरस्कार करे ऐसी वीणा बजाने लगे। जब वे गीतप्रबंध का अनुसरण करके अति स्पष्ट ऐसे सात स्वरों से वीणा वादन करते थे, तब किन्नर भी उनके किंकर हो जाते थे। धीर घोषणा से जब वे मृदंग को बजाते थे, तब मुरली का नाद करनेवाले कृष्ण की भी विडंबना करते थे। शंकर, पार्वती, उर्वशी, रंभा मुंजकेशी और तिलोत्तमा भी जिस नाट्य को नहीं जानती थी, वे उस नाट्य का अभिनय करते थे । सर्व गांधर्व का सर्वस्व और विश्व को मोहक अपूर्व संगीत का प्रकाश करते हुए वे सर्व के मन का हरण करने लगे।
(गा. 30 से 35 )
एक समय उस नगरी में मदनोत्सव का प्रवर्तन हुआ, तब संगीत के रसिक होकर नगरजन नगर से बाहर निकले । उस समय चित्र और संभूत
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )
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