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बहुत दूर जाने पर उनको एक विशाल गिरि (पर्वत) दिखाई दिया। वह इतना ऊँचा था कि उसके ऊपर चढ़ने पर पृथ्वी पर रहा बड़ा हाथी भी बच्चा जैसा दिखाई देता था। तब भृगुपात (भैरव जव) करने की इच्छा से वे उस पर्वत पर चढे। वहाँ गुण के जंगमगिरि रूप एक महामुनि उनको दृष्टिगत हुए उन मुनि को देखकर उनके संताप का प्रसार नाश हो गया। आनंदाश्रु के बहाने से मानो पूर्व के दुःख को छोड़ देते हों, वैसे वे भ्रमर की भांति सद्य उनके चरणकमल में गिर पड़े। मुनि ने ध्यान समाप्त करके उनको कहा कि तुम दोनों कौन कैसे हो? और यहाँ पर क्यों आए हो? उन्होंने अपना सर्व वृत्तान्त मुनि श्री को कह सुनाया। मुनि ने कहा भृगुपात करने से तुम्हारे शरीर का नाश होगा, परन्तु सैंकड़ों जन्मों से उपार्जन किए हुए तुम्हारे अशुभ कर्मों का नाश नहीं होगा। यदि तुमको इस शरीर का त्याग ही करना हो तो स्वर्ग और मोक्षादि के कारण रूप परम तप करके इस शरीर का फल ग्रहण करो। इत्यादि देशनावाक्य रूप अमृत से जिनका मन धुलकर निर्मल हुआ है ऐसे, उन दोनों ने तत्काल उन मुनि के पास यति धर्म ग्रहण किया। अनुक्रम से शास्त्रों का अध्ययन करके वे दोनों गीतार्थ हुए। मनस्वीजन जिसका ग्रहण करने में आदर करे, उसका ग्रहण क्यों न हो? छट्ठ (बेला), अट्ठम (तेला) आदि दुस्तर तप करके उन्होंने पूर्व कर्म के साथ अपने शरीर को शोषित कर दिया। पश्चात् एक शहर से दूसरे शहर
और ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए वे किसी समय हस्तिनापुर के समीप आये। वहाँ नगर के बाहर उद्यान में रहकर उन्होंने दुस्तर तप करना चालू कर दिया। "शांत चित्तवाले मनुष्यों को संयोग की भूमि भी तपस्या के लिए हो जाती है।"
(गा. 52 से 63) एक समय मानो शरीरधारी यतिधर्म हो वैसे संभूत मुनि ने मासक्षमण के पारणे पर हस्तिनापुर में भिक्षा लेने के लिए प्रवेश किया। ईर्यासमिति पूर्वक घर-घर भ्रमण करते हुए वे मुनि मार्ग में नमुचि मंत्री को दिखाई दिये। तब “यह चांडाल-पुत्र मेरा वृत्तांत जाहिर कर देंगे," ऐसी मंत्री के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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