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कर, दूत को आदर सहित विदा किया। वहाँ से दूत द्वारपाल से निवेदन करके राजकुमार धनकुमार के पास आया। धनकुमार को नमस्कार करके योग्य आसन पर बैठकर अपने आगमन का कारण बताया। पश्चात् यह पत्र राजकुमारी धनवती ने आपको देने के लिए कहा है, ऐसा कहकर कुमार को वह पत्र दिया। धनकुमार ने हाथों से पत्र को खोलकर कामदेव के शासन जैसा वह पत्र पढ़ने लगा। पत्र में लिखा था कि 'यौवन की तरह शरदऋतु ने जिसकी शोभा विशेष रूप से की है ऐसी पद्मिनी मुख पर ग्लानि होने पर भी सूर्य का करपीड़न चाहती है (सूर्य के पक्ष में किरणें, अन्य पक्ष में पाणिग्रहण करना) पत्र पढ़कर उसका भावार्थ समझकर धनकुमार सोचने लगा कि उसकी यह अद्भुत छेकोक्ति मुझ पर अतिशय स्नेह को दर्शाती है। ऐसा विचार करके धनकुमार ने भी धनवती को पत्र लिखकर एक मुक्ताहार के साथ दूत को दे दिया।
(गा. 70 से 80) धनकुमार से जुदा होकर दूत शीघ्र ही कुसुमपुर आया और राजा विक्रमधन ने संबंध अंगीकार कर लिया, इसकी बधाई दी। बाद में धनवती के पास आकर उसने पत्र और मुक्ताहार देकर कहा, धनकुमार ने यह पत्र और मुक्ताहार प्रेषित किया है। चंद्र जैसा निर्मल मुक्ताहार करकमल में ग्रहण करके पत्र की मुद्रा को तोड़कर राजकुमारी आनंदित होकर पढ़ने लगी। उसमें लिखा था'सूर्य का करपीड़न करके पद्मिनी को प्रमुदित करना, यह उसके स्वभाव से ही सिद्ध है। इसमें याचना करने की वह कोई अपेक्षा नहीं रखता है' ऐसा पढ़कर राजकुमारी को अत्यन्त हर्ष हुआ, उसका शरीर पुलकित हो गया कि अवश्य ही मेरे श्लोक का भावार्थ उनको समझ में आ गया है और फिर अमृत जैसा उज्ज्वल वह मुक्ताहार उन्होंने मुझे कंठ में धारण करने के लिए भेजा है, इससे यही फलित होता है कि कंठालिंगन करने के लिए मुझे हार भेजा है, ऐसा सोचकर धनवती ने तत्काल वह हार कंठ में धारण कर लिया और उस दूत को पारितोषिक देकर विदा किया।
__ (गा. 81 से 87) कुछ समय पश्चात् शुभ दिन में सिंहराजा ने वृद्ध, अनुभवी मंत्रियों विपुल समृद्धि, विपुल धन, वैभव सहित धनवती को अचलपुर के लिए प्रस्थान करवाया। प्रस्थान के समय विमल हृदयवाली विमला माता ने उसे आशीषपूर्वक
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)