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का विधान सफल होवे। तब राजा ने प्रसन्न होकर कहा कि- हे दूत! साधु तूने मेरे कहे बिना स्वयं ही मेरे कार्य की चिंता की और राजकन्या के वर के चिंतारूपी सागर से मेरा उद्धार किया। हे बुद्धिमान दूत! अब तू विक्रमधन राजा के पास जाकर राजकन्या धनवती के लिए धनकुमार के लिए प्रार्थना कर। मेरे आदेश का पालन कर। इधर राजा और दूत के मध्य वार्तालाप हो रहा था, उस समय धनवती की छोटी बहन चंद्रवती पिताजी को प्रणाम करने हेतु वहाँ आई थी। उसने यह वार्तालाप सुना और हर्ष से नाचती हुई अपनी बहन के पास आई और सर्व वृत्तांत कह सुनाया।
(गा. 56 से 64) धनवती ने अपनी सखी कमलिनी को कहा कि- मुझे चंद्रवती की बात पर विश्वास नहीं होता है, लगता है वह अज्ञानता से ऐसा कह रही है, उस दूत को पिताजी ने किसी दूसरे काम के लिए भेजा होगा परंतु इस मुग्धा चंद्रवती ने सब मेरे लिए ही समझ लिया। तब कमलिनी ने कहा- हे बहन! वह दूत अभी भी यहीं पर है, तुम उनके मुख से ही सही बात जान लो। दीपक के होते हुए अग्नि को कौन पूछता है ? क्योंकि दीपक होने पर जुबान या चमकदार पत्थर को कौन देखे? ऐसा कहकर भावनावश वह भावज्ञ सखी उस दूत को वहाँ ले आई। उसके मुख से सर्व वृत्तांत श्रवणकर धनवती अत्यन्त हर्षित हुई। पश्चात् धनवती ने एक पत्र लिखकर दूत को दिया, और कहा कि यह लेख धनकुमार को सादर प्रेषित कर देना।
(गा. 65 से 69) वहाँ से वह दूत शीघ्र ही अचलपुर आया और राज्यसभा में सिहांसन पर आरूढ़ विक्रमधन राजा की राज्यसभा में पहुँचा। विक्रमराजा ने पूछा कि- क्यों सिंहराजा कुशल तो है ना? तुरन्त तुम्हारे पुनरागमन पर मेरे मन में संकल्प विकल्प हो रहा है। तब दूत ने कहा, 'सिंहरथ राजा कुशल है। मुझे पुनः शीघ्र ही आपकी सेवा में भेजने का कारण यह है कि वे राजकुमार धनकुमार के हाथों में अपनी प्रिय पुत्री राजकुमारी धनवती का हाथ देना चाहते हैं। जिस प्रकार रूप में राजकुमार उत्कृष्ट है, उसी प्रकार हमारी राजकुमारी धनवती भी उत्कृष्ट है। अतः काचण्डमणि संयोग का निर्णय अभी हो जाना चाहिए। आप दोनों का स्नेह-संबंध पहले से ही है। अब यह संबंध वृक्ष के जल सिंचन से पुष्ट होकर विशेष हो जायेगा। ठीक है, विक्रमधन राजा ने ये संबंध सहर्ष स्वीकार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)