________________
में खींचकर लाई हुई हथिनी जैसी हो गई। धनकुमार के रूप और चित्रकार की कही हुई बात को याद करके बार-बार उसका सर कांपता था, अंगुलियाँ नाचती थीं और भृकुटि तन जाती थी। धनकुमार के ध्यान में परवश हुई वह राजकुमारी जो कुछ भी चेष्टा करती, वह जन्मान्तर के कृत्य की भांति तत्काल भूल जाती थी और उद्वर्तन, स्नान, विलेपन और अलंकारादिक को छोड़कर यह रमणी योगिनी की तरह अहर्निश उसके ध्यान में मग्न रहने लगी।
एक बार उसकी सखी कमलिनी ने उससे पूछा- हे कमलाक्षि! तू किस आधि-व्याधि से पीड़ित है, जो तेरी ऐसी दशा हो गई। उसके यकायक ऐसे प्रश्न से कृत्रिम कोप करती हुई धनवती बोली- 'हे सखि! बाहर के व्यक्ति की तरह तू क्या पूछती है ? क्या तू नहीं जानती? अरे तू तो मेरा दूसरा हृदय है, मेरे जीवितव्य जैसी है, मात्र सखी नहीं। तेरे इस प्रकार के प्रश्न से मुझे लज्जा आती है।' कमलिनी बोली- 'हे मानिनि! तूने मुझे उपालंभ दिया, वह ठीक है। तेरे हृदय के शल्य को और ऊँचे मनोरथ को मैं जानती हूँ। जब से चित्र को देखा, तू धनकुमार को चाहने लगी है। मैंने जो अनजान होकर, तुमसे पूछा, यह तो मैंने मस्करी की है। बहना! तेरा अनुराग योग्य स्थान पर है। मैंने जब से यह जाना है। तब से मैं भी उसके लिए चिंतातुर हूँ। सखि! मैंने एक ज्ञानी को पूछा था कि, मेरी सखी को मनवांछित वर मिलेगा या नहीं? तब उन्होंने प्रतीती कराई कि मिलेगा, इसलिए मेरी बहन! तू धीरज रख। तेरा मनोरथ अवश्य ही शीघ्र सिद्ध होगा। इस प्रकार आश्वासन देकर कमलिनी उसे धीरज बंधाती है।
(गा. 48 से 55) एक बार राजकुमारी दिव्यवेश धारण करके पिताजी को वंदन करने हेतु गई। जब वह वंदन करके चलने को हुई, तब उसके जाने के पश्चात् राजा को विचार आया कि अब यह पुत्री विवाह के योग्य हो गई है, तो इस पृथ्वी पर इसके योग्य कौनसा वर होगा? इस प्रकार राजा चिंतातुर रहने लगा। इतने में पहले राजा विक्रमधन के पास भेजा हुआ दूत आया। राज्यकार्य की जानकारी देकर उसने विराम लिया। सिंहराजा ने उससे पूछा, तूने वहाँ आश्चर्यकारक क्या देखा? तब दूत ने कहा, हे राजन्! विक्रमधन राजा का पुत्र धनकुमार का जो अद्भुत रूप मैंने देखा है, वैसा सुंदर रूप विद्याधरों या देवताओं में भी देखने में नहीं आया है। उनको देखकर मैंने वहीं निश्चय किया कि अपनी राजकुमारी के लिए यह योग्य, उत्तम वर है। वर-कन्या का संबंध होने में विधि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)