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शिक्षा दी कि सासू, श्वसुर और पति पर सदैव देवता की तरह भक्ति भाव वाली होना, सपत्नियों के अनुकूल बने रहना, परिवार पर दाक्षिण्यता / उदारता रखना और स्वामी का मान होने पर गर्वरहित तथा अविकारी विनम्र रहना । " इस प्रकार शिक्षा देकर झरते आंसुओं से भरे हुए बारबार आलिंगन करते हुए उसे जबरन विदा किया। छत्र - चामर से मंडित धनवती माता-पिता को नमस्कार करके, उत्तम शिविका में बैठकर सपरिवार आगे बढ़ने लगी । यह समुदाय चलता-चलता अचलपुर आ पहुँचा। साक्षात् धनकुमार की स्वयंवरा लक्ष्मी आई हो ऐसी धनवती को देखकर सभी पुरजनों को आश्चर्य हुआ । नगर के बाहर उद्यान में पड़ाव डाला गया। शुभ दिन में शुभ मुहूर्त्त में विपुल समृद्धि के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ। जिस प्रकार नागवल्ली से सुपारी का वृक्ष एवं विद्युत से नवीन मेघ शोभता है, उसी प्रकार उस नवोढ़ा से अभिनव यौवन वाला धनकुमार शोभित हुआ । रति के साथ कामदेव की भांति धनवती के साथ क्रीड़ा करते धनकुमार ने बहुत सा समय व्यतीत किया।
(गा. 88 से 96)
एक समय धनकुमार मानो प्रत्यक्ष रेवंत ( अर्थात् सूर्यपुत्र) हो ऐसे अश्व पर बैठकर सुवर्ण के कुंडलों को चलायमान करता हुआ एक उद्यान में गया। वहाँ पृथ्वी को पवित्र करने वाले और चतुर्विध ज्ञानधारी वसुधर नामक मुनि को देशना देते हुए देखा। मुनि भगवन्त को वन्दन करके योग्य स्थान पर बैठकर कर्ण में अमृत निर्झरण अमृतास्रव सदृश देशना श्रवण करने लगा। उसके पश्चात् राजा विक्रमधन देवी धारिणी एवं धनवती भी वहाँ आ पहुँचे । उन सभी ने भी मुनिश्री को वंदन किया, एवं धर्मदेशना सुनने लगे। देशना पूर्ण होने के पश्चात् विक्रमधन राजा ने मुनिश्री से पूछा कि, भंते! जब धनकुमार का गर्भ में अवतरण हुआ, तब इसकी माता ने स्वप्न में एक आम्रवृक्ष देखा था, उसी समय किसी एक पुरुष ने कहा था कि यह वृक्ष नौ बार भिन्न-भिन्न स्थानों पर रोपा जाएगा और उससे उत्कृष्ट - उत्कृष्टतर फल प्राप्त होगा । हे महात्मन्! कुमार का जन्म हुआ, यह तो बात हमारी समझ में आई परंतु यह वृक्ष नौ बार उगेगा यह बात समझ में न आ सकी। भगवन् इसका क्या अर्थ है ? यह प्रसन्नतापूर्वक हमें बतलाइये। यह सुनकर उन महामुनि ने सम्यग्ज्ञान का उपयोग लगाकर अन्यत्र स्थित केवली भगवन्त मनद्वारा समाधिस्थ होकर पूछा । केवली भगवन्त ने केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी द्वारा प्रश्न ज्ञान करके नवभव को सूचित करने वाला श्री
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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