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शत्रु हैं तो हम ही द्वंद्व युद्ध कर लें। तब नल और कदंब मानो दो जंगम पर्वत हों, वैसे भुजा युद्ध आदि द्वंद्व युद्ध से युद्ध करने लगे। गर्वांध कदंब नल के पास जो जो युद्ध की मांग की, उन सभी युद्धों मे विजयी नल ने उसको हरा दिया। उस समय कदंब ने विचार किया कि इस महापराक्रमी नलराजा के साथ मैंने क्षात्रव्रत बराबर तोल लिया, उसने मुझे मृत्यु की कोटि को प्राप्त करा दिया है। अतः पतंग की तरह उसके पराक्रमरूपी अग्नि में पड़कर किसलिए भर जाना? इससे तो यहाँ से पलायन करके व्रत ग्रहण कर लूँ। यदि परिणाम निर्मल आता हो तो पलायन करना भी श्रेष्ठ है। मन में ऐसा विचार करके कदंब ने वहाँ से पलायन करके विरक्त हो व्रत ग्रहण कर लिया, और प्रतिमा में रहे। कदंब व्रतधारी देखकर नल ने कहा कि, यहाँ तो मैं तुमको जीत गया हूँ परंतु अब दूसरी पृथ्वी मे मुनिरूप में आसक्त होकर तुम क्षमा को छोड़ना मत क्योंकि आप विजय के इच्छुक हो। महाव्रतधारी और धीरवान कदंब मुनि ने नल राजा को कुछ भी उत्तर नहीं दिया क्योंकि निस्पृह को राजा का भी क्या काम है? इससे नल ने कदंबमुनि की प्रशंसा की और उनके सत्व से प्रसन्न होकर सिर हिलाया, और उसके पुत्र जयशक्ति को उसके राज्य पर बिठाया। पश्चात सभी राजाओं ने मिलकर वसुदेव की तरह सब राजाओं को जीतने वाले नलराजा को भरतार्दाधिपति रूप से अभिषेक किया। वहाँ से कोशल के अधिपति कोशल नगरी में आए। वहाँ भक्तिकुशल सब राजाओं ने आकर उनको भेंट दी। खेचरों की स्त्रियाँ भी जिनके बल का गुणगान करती हैं, ऐसा नलराजा दवदंती के साथ क्रीड़ा करता हुआ चिरकाल तक पृथ्वी पर शासन करने लगा।
(गा. 423 से 435) उनका अनुज बंधु कूबेर जो कि कुल में अंगारे जैसा और राज्यलुब्ध था, वह सत्पात्र के छिद्र की जैसे डाकण देखती है वैसे ही नलराजा के छिद्र को शोधने लगा। नलराजा सदा न्यायवान थे तथापि उसे द्यूत खेलने में विशेष आसक्ति थी। चंद्र में भी कलंक है किसी भी स्थान पर रत्न निष्कलंक होते ही नहीं। मैं इस नल के पास से सर्व पृथ्वी द्यूत खेलकर जीत लूं, ऐसे दुष्ट आशय से वह कुबेर हमेशा पासे से नल से खेलता रहता था। वे दोनों पास से बहुत काल तक खेलते रहे। उसमें डमरूक मणि की तरह एक दूसरे की जीत हुआ करती।
(गा. 436 से 439)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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