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________________ एक बार नलराजा जो द्यूत क्रीडा में बंध मोक्ष करने में चतुर था, फिर भी देवदोष से कुबेर को जीतने में समर्थ नहीं हो सका। नल ने अपना ही पासा अनुकूल होगा सोचा था, वे भी विपरीत पडने लगे । और कुबेर बारंबार गोटियाँ मारने लगा। नलराजा शनैः शनैः गाँव, कट और कृष कस्बे आदि द्यूत में हार गया और ग्रीष्मकाल में जल द्वारा सरोवर की तरह लक्ष्मी से हीन होने लगा। इतनी हानि होने पर भी नल ने द्यूतक्रीड़ा छोड़ी नहीं, तब सभी लोग खेद करने लगे और कुबेर अपनी इच्छा पूर्व होने से हर्षित होने लगा । सब लोग नल के अनुयायी थे जिससे वे सब हाहाकार करने लगे । यह हाहाकार सुनकर दवदंती भी वहाँ आई। उसने नल को कहा, हे नाथ! मैं आपको प्रार्थना करके कहती हूँ कि मुझ पर प्रसन्न होकर यह द्यूतक्रीड़ा छोड़ दो। ये पासे तुम्हारे बैरी के जैसे द्रोह करने वाले हैं। बुद्धिमानों को वेश्यागमन की तरह द्यूत क्रीड़ा मात्र होती है परंतु अपनी आत्मा को अंधकार देने वाली इस द्यूतक्रीड़ा को इस प्रकार अविसेवन नहीं करते। यह राज्य अनुज बंधु कुबेर की स्वयंमेव दे देना ठीक है, परंतु मैंने तो उसके पास से बलात्कार राज्य लक्ष्मी ले ली है ऐसा ये अपवाद बोले वैसामत करो। हे देव! यह पृथ्वी सैकडों युद्ध करके प्राप्त की है, वह एक द्यूतक्रीडा में फूटे हुए प्रवाह की तरह सहज में ही जा रही है । यह स्थिति मुझे अत्यंत दुखदायी है। दवदंती की इस वाणी को दसवें मदावस्था को प्राप्त हस्ती की तरह नलराजा ने जरा भी नहीं सुना और उसको दृष्टि से देखा भी नहीं। जब पति ने उनकी अवज्ञा की तब रोती रोती वह कुल प्रधानों के पास आकर कहने लगी कि इन नलराजा को आप द्यूत से रोक दो । सन्निपात वाले व्यक्ति को औषध की तरह उन प्रधानों के वचनों का भी नलराजा पर जरा भी असर नहीं हुआ। (गा. 440 से 451 ) भूमि को हार जाने वाला वह नलराज अग्नि जैसा हो गया। पश्चात दवदंती सहित अंतःपुर भी हार गया । इस प्रकार सर्वस्व हार जाने के पश्चात मानो दीक्षा लेने का इच्छुक हो वैसे उसने अंग पर से सर्व आभूषण भी हार कर छोड़ दिये। तब कुबेर ने कहा, हे नल! तू सर्वस्व हार गया है, अतः अब यहाँ रहना नहीं । मेरी भूमि को छोड़ दें। क्योंकि तुझे जो पिताजी ने राज्य दिया था, परंतु मुझे तो द्यूत के पासों ने राज्य दिया है। उसके ऐसे वचन सुनकर नल राजा बोला पराक्रमी पुरूषों को लक्ष्मी दूर नहीं है, अतः तू जरा भी गर्व मत कर । नल पहले हुए वस्त्र त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 104
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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