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उत्तराध्ययन
367 काले अ अतित्तिलाभे ॥ ६७ ॥ रसे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि ।
अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८ ॥ व्याख्या-इहादत्तं खण्डखाद्यफलादिकं रसवद्वस्तु ॥ ६८ ॥ मूलम्-तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वहुइ लोभदोसा,
तस्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ७० ॥ रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निवत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ७१॥ एमेव रस्संमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझेवि संतो, जलेण वा पुक्ख
रिणीपलासं ॥ ७३ ॥४॥ मूलम्-कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु,
समो अ जो तेसु जो वीअरागो ॥ ७४ ॥ फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ ७५ ॥ फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे सीअजलावसन्ने, गाहग्गहीए
महिसे व रणे । ७६॥ व्याख्या-'सीअजलायसन्नेत्ति' शीतजलेऽवसनो निमग्नः शीतजलायसन्नो ग्राहैर्जलचरविशेपैर्ग्रहीतो महिष इवारण्ये, वसती हि कदाचित्केनचिन्मोच्येतापीत्यरण्यग्रहणम् ॥ ७६ ॥ मूलम्-जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुदंतदोसेण सएण जंतू, न
किंचि फासं अवरज्झई से ॥ ७७ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ७८ ॥ फासाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्त
दृगुरू किलिहे ॥ ७९ ॥ व्याख्या-अत्र शुभस्पर्शाणां मृगादिचर्मपुष्पयस्त्रादीनां संग्रहे स्त्रीसेवादौ च प्रवर्त्तमानश्चराचरान् हन्ति ॥७९॥ मूलम्-फासाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहं सुहं से,
संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ८० ॥ फासे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ
तुढेि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ८१ ॥ व्याख्या-इहादत्तं शुभस्पर्श वस्त्रतूलिकादि ॥ ८१॥ मूलम्-तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुसं वडइ लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ८२ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥८३ ॥ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निवत्तए जस्स कए ण दुक्खं ॥८४॥ एमेव फासंमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ८५॥ फासे विरत्तो मणुओ