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उत्तराध्ययन
व्याख्या–‘ओसहि' इत्यादि - औषधयो नागदमन्याद्याखासां गन्धे गृद्धः औषधिगन्धगृद्धः सन् 'सप्पे बिठाओ बिवत्ति' इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् सर्प इव बिलान्निष्क्रामन् सात्यन्तप्रियं तद्गन्धमुपेक्षितुमशक्तो बिलान्निष्क्रामति, ततो गारुडिकादिपरवशो दुःखमनुभवतीति ॥ ५० ॥
मूलम् — जे आवि दोसं समुवेइ तिब्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुदंत दोसेण सएण जंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से ॥ ५१ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि गंधे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ५२ ॥ गंधाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिडे । ५३ । व्याख्या - अत्र मूषकमुष्कमृगनाभिप्रभृतिहेतवे पुष्पादिहेतवे च चराचरान् हिनस्तीति ॥ ५३ ॥ मूलम् - गंधाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥ ५४ ॥ गंधे अतित्तो अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि । अडिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ५५ ॥
व्याख्या - इहादत्तं सुगन्धितैल- कस्तूरिका - कुसुमादि ॥ ५५ ॥
मूलम् - तहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुसं वडइ लोभदोसा, तस्थावि दुक्खा न विमुञ्चई से ॥ ५६ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ५७ ॥ गंधारत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निबई जस्स क ण दुक्खं ॥ ५८ ॥ एमेव गंधम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो अचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ५९ ॥ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ६० ॥ ३॥
मूलम् — जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समोअजो तेसु स वीरागो ॥ ६१ ॥ रसस्स जिन्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हे समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ ६२ ॥ रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे बडिस विभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिस भोगगिद्धे ॥६३॥ व्याख्या - 'बडिसविभिन्नकाएत्ति' बडिशं प्रान्तन्यस्तामिपो लोहकीलकस्तेन विभिन्नो विदारितः कायो यस्य स afsafefभन्नकायः मत्स्यो यथा आमिपस्य मांसस्य भोगे खादने गृद्ध आमिपभोगगृद्धः ॥ ६३ ॥
मूलम् - जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुदंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रस्सं अवरज्झई से ॥ ६४ ॥ एगंतरत्तो रुइरे रसंमि, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ६५ ॥ रसाणुगासाणुगए अजीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्टे ॥ ६६ ॥ व्याख्या—भत्र चराचरान् भक्षणोपयोगिनो मृगपशुमीनपक्षिप्रभृतीन् कन्दमूलफलादींश्च हिनस्ति ॥ ६६ ॥ मूलम् - रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोग