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अंत मङ्गलाचरण-
८३१ ॥ ॥अथ स्वकुल प्रकाशणम् ॥ ॥ ॥ ॥ हिव कही माहरो कुल प्रकासुं अहो नवियण तुम सुणो । गु रु गढ कोटिक चंद्रकुल अरु वयरि शाखा चितनयो । गुण गण जिनेसर सूरि गुऊर बिरुद पायो गुणकरी । सोजयन खरतर गढ मोहन प्रगट स हु जवि हित धरी ॥ ॥
॥ ॥ । ॥ ॥ गुरु गब खरतर तेज दीप विक्रमपुर सोहै सही । जिनहंस सूरीसर तणे पद चंदसूरी जिन मही। गणधार लक्ष्मीप्रधान पाठक मोहन मन नलास ए। बहु रत्नसंग्रह कलिकत्ता पुर किया मुंबइ नासए ॥ २ ॥
॥ ॥ रत्नसागर अंत मंगलाचरण ॥१॥ ॥ ॥तीन तत्वकों नमण कर । सेकं सद्गुरु पाय । देवी जगवती सा निधै । बचन अमृत रस थाय ॥१॥ चौरासी लद जोनिमें । जे रह्या जीव अनन्त । मोह मिथ्यात वसे पड्या। पायो पुःख नही अन्त ॥२॥ परम देव परमातमा । चिदानन्द गुणचंग । जव्य जीवके हित जणी । वेद कह्या सह अंग ॥ ३ ॥गणधर गौतम आदि सहु । रचिया अंग अनूप त्रिकरण हुं प्रणमुं सदा। झान आतम गुण जूप ॥ ४ ॥ आचारज ख माय मुनि । नगवन वचन नपेत । नाष्य टीका नियुक्ति कर । प्रगट कीया संकेत ॥५॥ नगवती मुत्र मांहे कह्या । आगमना पंच अंग । सरधै जै
नवि प्राणिया । पामें नित नगरंग ॥ ६ ॥ जैवंता वरतो सदा । सहु जग यमव ज्ञान । पिण नपगारी नव्यकों। ए श्रुतज्ञान प्रधान ॥७॥ष्टकर्म संयोगसें। चित वैठे नही ज्ञान । पिण जाणं सुरतरु समो। ए हीज धर्म प्रधान ॥ ८॥ प्रबल जाग्य संयोगसें । पारश दरसण पाय । पारश फर स्यां लोह सह । गुणकंचन समथाय ॥९॥ मनमोहन पारश मिल्यो । मो हन गुण सुखकंद । मोहनी मूरत देखके । मोहन चित आनंद ॥ १० ॥ पारश प्रनुकेनामसे । सहु संकट मिटजाय । ईतनपद्रव जयटलें । मोहनगुण प्रगटाय ॥११॥ जिन दरशण मुझ मनवस्यो। जे प्रगटै चित आय । कर्मशत्रु दल जीपकै । शिवरमणी वरं जाय ॥१२॥ शिवपुर जोवा कारणे । समकित दृढके हेत । बाल अज्ञ मोहन नणी । रत्नसागर गुण देत ॥ १३ ॥३॥