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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह. बहु पुन्न । असुखी पामें सुखसंतान । एकमना करतां गुरु ध्यान ॥ ६ ॥ प्रनु समरण आपद सहु टलै । सयब सांति सुखसंपति मिले ।आधि व्याधि चिंता संताप । ते मी नवि ममै व्याप॥७॥पाप दोष नवि लागै तिहां । प्रनु दरसण नत्कंठा जिहां । सेवंतां सुरतरुनी गंहि । निश्चै दालिद्र मेटै बाहि ॥८॥विस हर विस नर विस नरनाह । नूत प्रेत ग्रह व्यंतर राह । प्रनु नांमें जे नकर पीम । जाजै नावठ जव जय नीम ॥९॥ रोग सोग सवि नासै दूर । अंधकार जिम ऊगै सूर । मूरख फीटी पंमित थाय । प्रनुपसाय सुख दु रिय पुलाय ॥१०॥ दिन दिन जिन सासन नद्योत । तिहां अवै नव सा यर पोत । सो सदगुरु में नेट्यौ आज । रलीय रंग सीधा सवि काज ॥११॥ (ढाल ) आज घर अंगण सुरतरु फलियो। चिंतामणि कर कमलै मिलि यो । नदयो परमाणंद घरे ॥ १२ ॥आज दीहमें धन्ने गिणियौ । जुगपव रागम जोमें थुणियौ । चंद्रगढ महिमा निलोए ॥१३॥ कांई करो पृथिवी पतिसेवा । कांई मनावो देवी देवा । चिंता आंणो कांई मने ॥ १४ ॥ वार वार ए कवत नणीजै । श्रीजिन कुशलसूरि समरीजै। सरै काज आयास वि णे ॥ १५ ॥ संवत चवद इक्यासी वरसै । मुलक वाहणपुरमें मन हरसै ॥ अजिय जिणेसर वरनवणे ॥ १६ ॥ कीयो कवित ए मंगल कारण । विधन हरण सहु पाप निवारण । कोई मत संसो धरो मने ॥ १७ ॥ जिम २ से वै सुरनर राया। श्रीजिन कुशल मुनीसर पाया। जयसागर नवशाय थुणे॥ १८॥ इम जो सदगुरु गुण अनिनंदै । इद्धि समृद्धै सो चिरनंदै । मन वंचित फलमुफ हुवो ए॥ ॥ ॥ * ॥ ॥ ॥ दादाजी श्रीजिन कुशल सूरजी उत्पत्ति विचारगर्जित स्तो० ॥ ॥
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॥शति॥