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पंचज्ञान पूजा आरती.
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ख ब्रम्हचारी रे ॥ तूंचि ० ॥ ८ ॥ ॐ श्री परमात्मने श्रीकेवलज्ञांन धारकेभ्यः फलं १ कृतं २ दीपं ३ नैवेद्यं ४ यजामहे स्वाहाः ॥ ५ ॥
॥ ॐ ॥
॥ * ॥ अथ कलश पूजा ॥ * ॥
॥ * ॥ केशरियानें काजको लोक तिरायो० ॥ (ए चाल ) ॥ ॥ प्रनु थांरोग्यांन अनंत सुहायो । प्रभु अशरण शरण कहायो ॥ प्र० ॥ मति श्रुति अवधि मनपर्यव । केवल अधिक कहायो । जव्यसकल नृपगार करत है । श्रीजिनराज वतायो ॥ प्र० ॥ १ ॥ खरतरगब पति चंद्र सूरीसर । रा जत राज सवायो । तेजपुंज रवि शशि सम सोहै । देखत दिल हुलसा यो ॥ २ ॥ प्र० ॥ प्रीत सागरगणि शिष्य सुबाचक | अमृतधर्म सुपायो शीश क्षमाकल्यांण सुपाठक | सदगुरु नाम धरायो ॥ प्रनु० ॥ ३ ॥ धरम विशाल दयाल जगतमैं । ज्ञांन दिवाकर ध्यायो । ज्ञांन क्रियानो मूलजे कहीयै । तत्वरमण मननायो ॥ प्रनु० ॥ ४ ॥ वीकानेर नगर प्रति सुंदर | संघ सकल सुखदायो । सुक्ष्मती जिन धर्म आराधक । जगतकरै मुनिरायो ॥ प्र० ॥ ५ ॥ नगणीसे चालीशे वरशै । सूसूद वरदायो । ज्ञां न विजयकारक सब जगमें । नित प्रति होत सहायो ॥ प्र० ॥ ६ ॥ सुम ति सदा जिनराज कृपासें । ज्ञांन अधिक जशगायो । तत्वदीपक मोहन मुनिना । ज्ञांनतणो गुणगायो ॥ प्र० ॥ ७ ॥ इति
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॥ * ॥ अथ पांचज्ञान आरती ॥ * ॥
॥ * ॥ जय जग सुखकारी । वारी जय शम पद धारी । आरती करूं सहु सारी ॥ जय० ॥ अष्टाविंशति भेद करीनें । मति ज्ञान राजे ॥ मति० ॥ ध्यावत पूजत जविजनकेरा । जव संकट जाजे ॥ जय० ॥ १ ॥ जेद चतुर्दश अथवा विंशति । प्रवचन पति दाखे ॥ प्र० ॥ श्री श्रुतज्ञानकी महिमा जिन बर | स्वमुखथी जाखे ॥ जय० ॥ २ ॥ रूपी द्रव्य विषयि मर्यादा । करि अव धी सोहै ॥ क० ॥ नेद षटक संख्याती तीवा । प्रविजन मनमोहे ॥ जय० ॥ ॥ ३ ॥ तुर्य ज्ञान मन पर्यव कहिये । नेद युगम लहिये || नेद० ॥ रुजुमति विपुलमती सरदहियें । न्यूनाधिक गहिये ॥ जय० ॥ ४ ॥ लोका लोकांत र्गत वस्तु । गुण पर्यव जासी ॥ गु० ॥ केवल एक सहाय अनंते । नए