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रत्नसागर, श्रीजिनपूजा संग्रह. नी महिमा नित नित कीजै । तिमनवि नांमधरावै । म्हां ॥ जि० ॥ ४॥ जगजीवन जगलोचन कहिये । मुनिजन ए नितध्यावै ॥ म्हां ॥ जि०॥दि दाले जिनवर उपगारी । चोथो ज्ञान नपावै ॥ म्हां जि० ॥ ५ ॥ मनका शंसा दूर करतहैं । मुणतां आंण मनावै ॥ म्हां० जि०॥ तन मन शुचिकर पूजन करले । जनम जनम सुखपावै ॥ म्हां जि० ॥६॥ विविध कुशमसे पूजा करतां । बोधलता उपजावै ॥ म्हां जिन०॥ सुमति कहै नवि ज्ञान आराधो।श्री जिनदेव बतावै ॥ म्हां० जि०॥७॥नक्षी श्री परमात्म श्री मनपर्यवज्ञानधारकेभ्यः पुष्पयजामहे स्वाहाः॥४॥॥
॥ ॥ अथ (५) केवल ज्ञानपूजा॥॥ ॥ ॥ (दूहा)॥प्रनुपूजा ए पंचमी । पंचम ज्ञान प्रधांन । सकललाव दीपक सदा। पूजो केवल झांन ॥१॥ फल दीपक अक्त धरी । नैवेद्य सुरनिनदार । नाव धरी पूजन करो । पावो झांन अपार ॥२॥ ॥ ॥ (ढाल ) तुमविन दीनानाथ दयानिध तु०॥ (ए चाल)॥॥
तुंचिदरूप अनूप जिनेसर । दरशणकी बलिहारीरे । तुं० । (आं०) निरमल केवल पूरण प्रगट्यो। लोका लोक विहारीरे। केवलज्ञान अनंत विरा जै। हायक नाव विचारी रे॥ तुंचिद० ॥१॥जोत सरूपी जगदानंदी । अ नुपम शिवमुख धारीरे। जगत नाव परकाशक जानूं । निजगुण रूप सुधारी रे॥ तुंचि० ॥२॥सकन विमलगुण धारक जगमें । सेवत सब नरनारीरे। आतम शुच सरूपी नविजन । गुण मणि रयण नंमारीरे॥ तुंचिद० ॥ ३॥ केवल केवल ज्ञान विराजै । दूजो नेदन धारीरे । आतम नावै नवि ज नसेवो । जगजीवन हितकारीरे ॥ तुंचि० ॥ ४ ॥ अवर झांन सब देश क हावै । केवल सरब विहारीरे । सरब प्रदेशी जिनवर नाखे । साखै श्रीगण धारीरे॥ तुंचि० ॥ ५ ॥ नए अजोगी गुणके धारक । श्रेणचढी सुखका रीरे । अष्ट कर्म दल दूरकरीनें । परमातम पद धारीरे॥ तुंचि० ॥६॥ अमें झांनवमो जगमां है । सेवोशुन आचारीरे । सुमति कहै लविजन शुन जावै । पूजो कर इकतारीरे ॥ तुंचि०॥७॥ फल १ अक्त २ दीपक ३ नेवद्यसें ४ । पूजो ज्ञान उदारीरे । पूजत अनुभव सत्तापगट। विलशै सु