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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह
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गत करी जिन राजनी । समकित शुद्ध नृपाय ॥ १ ॥ ( ढाल ) ॥ ॥ जिन गुण गावत सुरसुंदरीरे ॥ जिन० सु० ॥ (ए चाल ) ॥ निरत करे मिल सुरसुंदरी रे ॥ नि० सु० ॥ थेई २ तान कर आगे । गावत देवी सुर मधुरी रे ॥ नि० ॥ कंचू कसिया हरख नलसिया । ठमठम नाचत कवल करी रे ॥ नि० ॥ १ ॥ ताल कंशाल बिशाल अनोपम । गा वतराग बत्तीस करी रे ॥ नि० ॥ जिनगुण गावत हरख वधावत । पावत निजगुण हरख जरीरे ॥ नि० ॥ २ ॥ तीन लोकको नाथ निरंजन । धरम धुरंधर तुंजिनरीरे ॥ नि० ॥ जव दुःख भंजन जन मन रंजन । अशर
शरण आनंद करीरे ॥ नि० सु० ॥ ३ ॥ अनंत गुणाकर सब सुख सा गर । सेवत पद दूरटरी रे ॥ नि० ॥ जगदीपक जगलोचन तूंही । तुंही जगत पिया महरी रे ॥ नि० सु० ॥ ४ ॥ इण विध नृत्य करी प्रयागल समकित सुध नृपाय खरीरे ॥ नि० ॥ सुमति कहै जविजन जिन पूजो । सफल जनम ए सफल घरी रे ॥ नि० सु० ॥ ५ ॥ कूट जिनेंद्राय नाटक पूजा ॥
श्री परमा० सहस
१२ ॥
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॥ ॥ अथ गुलाब जल ॥
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पूजन कर जिनराज । ( चाल अंगरेजीवाजै
॥ ( दूहा ) ॥ विविध सुगधं लेई करी । सुजश सुगंधी विस्तरै । प्रगटे पुन्यसमाज ॥ की ) ॥ आनंद कंद पूजतां जिनंद चंदहं (ए चाल ) ॥ पूज पूज जिन राज काजसारतुं । का० ॥ पू० ॥ जग जश धार सार सुःखकारर्तुं । अनंत झां न ही जन हितकातुं । हि० ॥ ० ॥ १ ॥ केतकी गुलाब फूल चाढ सारतुं । मोगरो अबीरलाल अविकार ॥ प्र० पू० ॥ २ ॥ तुंही जगमात तात जरतारतुं । अत्तर सुगंध गंध विदार ॥ ज० पू० ॥ ३ ॥ केवमो चंपेल बेल वधारतुं । परम आनंद चंद जिनसारतुं ॥ जि० पृ० ॥ ४ ॥ जंगत धार सार किरतारखं । मैतोहुँ आचारहीन मुनिता ॥ मु० पू० ॥ ५ ॥ मुनिंद चंद पूजतां पाप टारतुं । एही है जिनंद देव जवि धातु || ० पू० ॥ ६ ॥ तुंही है मुनीश ईश गुणकारं । सुमति आधारसार जय