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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह दें शोनतुं । अजरामर फल दातारे॥ जे नर पूजे नावशुं । ते पामें सुख शातारे । दरशण पद० ॥ २३ ॥३॥
॥ ॥ #॥ श्लोक ॥ जिनेंद्रोक्तमतं श्रधा । लक्षणं दर्शनंयजे॥ मिथ्यात्वमथ नं शुछ । न्यस्तमीशानसदले ॥१॥ क्षी सम्यग्दर्शनाय नमः॥इति ॥६॥
॥ ॥ अथ सप्तम ज्ञान पद पूजा ।। * ॥ ॥* ॥दोहा ॥ सप्तम पद श्री ज्ञाननो । सिघचक्रतप मांहि ॥ आराधी जे शुन्न मनें । दिन दिन अधिक नबाहि ॥ * ॥
नाणं पहाणं नय सिघ चक्कं । तत्ताववोहिक्क मयं पसिद्धं । धरेह चित्तावसहे कुरंतं । माणक दीवुब्ब तमो हरंतं ॥७॥४॥
॥ * ॥ बंद ॥ अन्नाण संमोह तमोहरस्स । णमो णमो नाण दिवायरस्स। पंचप्पयारस्सु वगारगस्स । सत्ताण सवत्थ पया सगस्स ॥ १ ॥ हुवे जेहथी ज्ञान शुध प्रबोधे । यथा वरण नाशे विचित्रं विबोधं ॥ तिणे जा णीय वस्तु षडद्रव्य नावा । न होवे वितहा निजेडा स्वप्नावा ॥ हुवे पंच मत्यादि सुझान दें। गुरूपासथी योग्यता तेह वेदेवली ज्ञेय हेया नपा देय रूपें । लहे चित्तमां जेम ध्वांतप्रदीपें ॥१॥
॥ ॥ (ढाल ) नद अन्नत विचारणा । पेय अपेय निर्धारोरे ॥ कृत्य अकृत्य ने जाणियें । ज्ञान महा जयकारोरे ॥२४॥ज्ञान निरंतर वंदियें ॥ (ए आंकणी)॥ज्ञान विना जयणा नही । जयणा विण नही धर्मोरे ॥धर्म विना शिव सुख नही । ते विण न मिटे जर्मो रे॥झा० ॥ २५॥ पांच प्रकार ने जेहना, नेद इकावन तासोरे ॥ जाणीनें पूजे सदा । ते लहे केवल खासोरे॥२६ ॥॥
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॥ ॥ ॥ ॥श्लोक ॥ अशेषद्रव्यपर्याय । रूपमेवावनासकम् ॥ज्ञानमाग्नयपत्र स्थं । पूजयामि हितावहम् ॥ इति ॥ * ॥ .... ॥ ॐ ॥अथ अष्टम चारित्र पद पूजा ॥ॐ॥
॥ * ॥ दोहा ॥ अष्टमपद चारित्रनुं । पूजो धरी नमद॥ पूजत अनुन्नव रस मिले । पातक होय नब्बेद ॥१॥*॥
॥ॐ॥