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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह
॥ * ॥ श्लोक ॥ अथाष्टदलमध्याब्ज । कर्णिकायां जिनेश्वरान् ॥ प्रवि नूत जसोधा | नावृतः स्थापयाम्यहम् ॥ १ ॥ निःशेष दोषेधन धूमकेतु नपार संसार समुद्र सेतून् ॥ यजे समस्ता तिशयैक हेतून् । श्रीमजिनानं बुजकर्णिकायाम् ॥ २ ॥ ( ी प्रदभ्यो नमः) ॥ इति ॥
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॥ ॥ अथ द्वितीय सिद्धपद पूजा ॥ # ॥ ॥ दोहा ॥ दूजी पूजा सिद्धकी। कीजें दिल खुशियाल ॥ अशुभ कर्म दूरें टले । फले मनोरथमाल ॥ १ ॥ # ॥ ॥ 566 कम्मावरण पमुक्के । तनालाइ सिरी चनक्के । समग्ग लोग ग्गपयप्पसि । काहनिच्चपि मां मि सिद्धे ॥ २ ॥ ॥
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॥ॐ॥
॥ ॐ ॥ सिद्धाणमादरमालयाणं । णमो णमो पंत चनुकयाणं ॥ सम्मग्ग कम्मक्खय कारयाणं । जम्मं जरा दुक्ख निवारयाणं ॥ १ ॥ करी आठ कर्म कयें पार पाम्या । जरा जन्म मरणादि जय जेण वाम्या ॥ निरावरण जे आत्मरूपें प्रसिद्धा । थया पार पामी सदा सिद्ध बुधा ॥ त्रिना गोनहा वगाहात्मदेशा । रह्या ज्ञानमय जात बर्णादि लेशा ॥ सदानंत सौ ख्याश्रिता ज्योतिरूपा । अनाबाध अपुनर्भवादि स्वरूपा ॥ १ ॥
॥ ॐ ॥
॥ * ॥ (ढाल ) ॥ सकल करमनोदय करी । सिध अवस्था पाईरे ॥ गुण इगतीस विराजता । नृपम जसनही कांई रे ॥ ६ ॥ मन शुद्ध सिद्ध पद वंदियें (एकणी) जनम मरण दुःख निर्गम्या । शुद्धतम चिदरू पी रे ॥ अनंत चतुष्टय धारता । अव्याबाव रूपी रे ॥ म० ॥ ७ ॥ जास ध्यान जोगीसरू । करे अप्पा जायें रे ॥ जव जव संच्यां जीवमे । कठिण करम तें कायें रे ॥ ० ॥ ८ ॥ ध्यान धरंतां सिधनुं । पूजंतां मन रागें रे ॥ अविचल पदवी पाईयें। कहां जिनवर व जागें रे ॥ म० ॥ ९ ॥ ॥ ॥
॥ ॥ श्लोक ॥ तस्य पूर्वदले सिधान् । सम्यक्त्वादि गुणात्मकान् ॥ निःश्रेयसपदं प्राप्तान् । विदधे नक्ति निर्भरः ॥ १ ॥ तत्पूर्वपत्रे परितः प्रणष्टदुष्टाष्टकर्माधिगम्य शुद्धिम् ॥ प्राप्तान्नरान् सिद्धिमनंतबोधान् । सिद्धान्यजे शांति करा नराणाम् ॥ (नशी सिद्धेभ्योनमः ) ॥ ॥ 1181