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६९६ . रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह. वर झान नयो तब, विहरत पर नपगारी ॥ क्या० ॥ ६ ॥ नक्षी प० अ० ज० श्री दी० अष्टद्रव्यं० स्वाहा ॥३॥ ॥ॐ॥ ॥ॐ॥
॥अथ चतुर्थकेवलज्ञानकल्याणक पूजा॥8॥ ॥ ॥दोहा॥ गजवर अश्व समूह स्थ, पायक कोमाकोम॥ जिनदीक्षा महोत्सवसमें, हाजर होय तिण ठगेर ॥ १ ॥ इंद्रादिक सुर असुर नर, प्रजुकुं करे प्रणाम ॥ नर नारी आशीष दे। जयजय त्रिलुवन साम ॥२॥ तजि आश्रव संबर गहे, संयमन्नाव निधान ॥ सब संसार तजी करी, नए अणगार प्रधान ॥३॥ ॥ ॥
॥ ॥ ॥ ॥ तेरी पूजा बणी ते रसमें ॥ ए देशी॥ ॥ ॥ ॥धारी धारी धारी, जिन नए संयमपद धारी ॥ चरणकमल व लिहारी॥ जि० ॥ पंचसुमतिधर तीन गुपतिकर । सब जीवां सुखकारी॥ जि०॥१॥जीत लिये नपसर्गपरीसह, शत्रुसेना गणनारी ॥ जयनैरवतें निःप्रकंप नए, निर्मम निरहंकारी ॥ जि० ॥ २॥ क्रोध मान माया लोन अकिंचन, आकिंचन ब्रह्मचारी ॥ पुष्करसम निरलेप जगत गुरु, नीरंजन अविकारी ॥ जि० ॥३॥ चेतन पर प्रनु अप्रतिघाती । खेसम निराश्र यारी ॥ खड्गी श्रृंग परे एकाकी, अप्रतिबंध बिहारी॥ जि० ॥४॥ ॥
॥ ॥ (दोहा)॥ रत्नत्रय परिग्रह करी । मुक्तिमार्ग अजिराम ॥ निशि दिन करत विहारक्रम । प्रासुकाम निजधाम ॥१॥ ॥॥ ॥.
॥ ॥ सद्गुरुजी सुनो मेरी अरजी ॥ ए देशी ॥ ॥ ॥ जिनवरजी जगतहितकारी ॥ जि०॥ जग वत्सल जगवंधु जगत गुरु, जग नायक जयकारी|जि०॥१॥कूर्मतणीपर गुप्तइंद्रिया, अप्रमाद जारमसुचरि॥ अतिशय धाम धाम निजवीरज, वृषनपरें सुविहारी ॥ जि° ॥२॥ शूर बीर प्रनु सिंहतणी पर । कुंजर करम बिदारी ॥ अतिगंभीर सायरसम शोनित । सौम्यलेश्या सुखकारी ॥ जि० ॥३॥ तेज पुंज दि नकर सम दीपत, हेम वरण मनुहारी ॥ सर्वसहन कारक धरणीपर, स्वच्छ हृदयकजधारी। जि०॥४॥ ॥ ॥ ॥ ॥